इस्राइल में जो कुछ हो रहा है उसकी शुरुआत यकीनन ऐसी नहीं थी और ना ही किसी ने यह अंदाजा लगाया था कि विश्व जहां कोरोना महामारी से जूझ रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ इस्राइल-फिलिस्तीन युद्ध की तरफ बढ़ जाएंगे। हालांकि यह युद्ध रोका जा सकता था, यदि येरूशलम के अल-अक्सा मस्जिद में कुछ फिलिस्तीनी असामाजिक तत्वों ने बाहर खड़े इस्राइली सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी न किया होता, तब किसी ने नहीं सोचा था कि इस्राइली सुरक्षाबल मस्जिद के अंदर घुसकर क्रैकडाउन कर देंगे। यकीनन सैकड़ों घायल हुए, लेकिन तब भी युद्ध कि कोई गुंजाइश नहीं थी। मगर जिस तरह फिलिस्तीन के गाजा पट्टी से हमास उग्रवादियों ने इस्राएल और येरूशलम पर 1800 से ज़्यादा रॉकेट दागा है, उसने प्रारंभ होने वाले इस युद्ध को निर्णायक मोड़ तक पहुंचा दिया है, बदले में इस्राएल भी 600 से ज़्यादा एयरस्ट्राइक कर चुका है। अबतक की घटना में 143 जानें जा चुकी हैं और 980 घायल हुए हैं, लेकिन यह आंकड़ा अब निरंतर बढ़ने वाला है।
हालांकि होने वाले इस युद्ध को एक बार फिर से रोका जा सकता था, यदि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अपने राजनीतिक हितों में ना फंस जाते। देखा जाए तो इस युद्ध को निर्णायक मोड़ पर अगर किसी एक व्यक्ति ने पहुंचाया है, तो वह जो बाइडेन हैं। जिन्होंने इस्राएल द्वारा हमास को दिए जा रहे प्रतिउत्तर को, आत्मरक्षा में उठाया गया कदम बताकर अपना प्रत्यक्ष समर्थन दे दिया। साथ ही चीन द्वारा सुरक्षा परिषद में बुलाए गए विशेष बैठक को भी ब्लॉक कर दिया। दरअसल, दुनियाभर के विश्लेषकों में एकसमान राय है कि राष्ट्रपति बाइडेन का कार्यकाल इस्राएल के लिए सबसे मुश्किल दौर होगा, लेकिन इसके उलट उन्होंने इस्राएल एवं ईरान पर एकसाथ दबाव, ईवेंजेलिकल ईसाइयों का वोट, ट्रंप को राजनितिक जवाब और अपनी लोकप्रियता बढ़ाकर एक ही तीर से एकसाथ 5 शिकार कर लिया। इन सबके बीच सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस्राएल किस हद तक हमास को तोड देना चाहता है क्योंकि फिलिस्तीन को कमज़ोर करने के लिए कभी खुद इस्राएल ने ही तो इसे बनाया था, और क्या ईरान इस युद्ध में प्रत्यक्ष भाग लेगा। चूंकि दुनिया जानती है कि इस्राएल और ईरान कट्टर प्रतिद्वंदी है, जो एक दूसरे को मिटा देना चाहते हैं। इसी का परिणाम है कि आज ईरान ही गाज़ा स्ट्रिप में राज करने वाले हमास और लेबनान में हिजबुल्ला उग्रवादियों को पुरा लॉजिस्टिक और तकनीक मुहैया कराता है। बहरहाल, वर्तमान घटनाक्रम के बीच जो बदलाव हुआ है, उसकी उम्मीद इस्राइली खुद प्रधानमंत्री नेतन्याहू को कम से कम 4 वर्षों तक तो बिल्कुल भी नहीं थी, लेकिन अब के परिदृश्य में इस्राएल के साथ सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि फ्रांस और जर्मनी भी आ गए हैं, हैरानी तो तब हुई जब ऑस्ट्रिया के चांसलर सेबेस्टियन कर्ज़ ने अपने आधिकारिक कार्यालय की इमारत के ऊपर ऑस्ट्रिया, यूरोपियन यूनियन के समकक्ष इस्राएल का झंडा लगाकर समर्थन की प्रतिबद्धता जताई।
बहरहाल, ओआईसी के सदस्य देशों ने पहले की ही तरह इस मुद्दे पर इजराइल की कड़ी निंदा की है, विशेषकर तुर्की ने। राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगान ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर बात करते हुए इसराइल को कड़ा सबक सिखाने की प्रतिबद्धता जाहिर की है ताकि फिलिस्तीनियों को उनकी ज़मीन वापस दिलाई जा सके। विश्लेषकों की नजर में तुर्की की यह प्रतिबद्धता एस-400 मिसाइल सिस्टम को लेकर है, जिसे वह वेस्ट बैंक में स्थापित कर इस्राएल को डराना चाहता है, और इसी कड़ी में एर्दोगान ने पुतिन से अनुमति मांगने के लिए उन्हें कॉल किया था। हालांकि, तुर्की सिर्फ दिखावा कर रहा है क्योंकि वह सऊदी अरब को हटाकर खुद मुस्लिम वर्ल्ड का लीडर बनाना चाहता है और राष्ट्रपति एर्दोगान पूर्वी येरूशलम के शेख़ ज़र्राह ज़मीन मामले में खुद को ऑटोमन साम्राज्य का खलीफा के तौर पर पेश कर रहे हैं बस इसीलिए वह इतनी सख्त भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वरना जब पूर्ण पैमाने पर युद्ध छिड़ जायेगा तो सबसे पहले भागने वालों में यही देश आगे होंगे। देखा जाए तो सबसे ज़्यादा नुकसान सिर्फ आम नागरिकों को ही होगा, पहले भी गाज़ा में रहने वाले कई नागरिकों ने हमास द्वारा रॉकेट लॉन्चिंग का विरोध किया लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। दरअसल दुनियाभर की सरकारें बनती तो नागरिकों के द्वारा है, लेकिन फिर उन्हीं की ही नहीं सुनतीं। चूंकि अब जब परमाणु संपन्न देश ने मिलिट्री इन्फोर्समेंट कानून लागू कर सैन्य प्रशिक्षण ले चुके अपने सभी आम नागरिकों को युद्ध के लिए तैयार रहने का फरमान जारी करने के साथ भारी भरकम टैंकों के द्वारा तीन तरफ से गाज़ा पट्टी को घेर लिया है। तब भी सबसे ज़्यादा फिक्र उन आम नागरिकों को ही है, कि उनका अब क्या होगा। क्या उन्हे मेडिटेरेनियन सागर में कूद के मर जाना पड़ेगा या वो घर के अंदर ही इस्राइली बॉम्बिंग का शिकार हो जाएंगे। दोनों तरफ के लोग दहशत में हैं सायरन बजते ही 45 सेकेंड के अंदर लोगों को सेफ बंकर में छुपने जाना पड़ता है, आसमान में लगातार फाइटर जेट्स उड़ाने भर रहे हैं। उधर अमेरिकी ग्रीन सिग्नल के बाद प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने शांति वार्ता दरकिनार करते हुए हमास नेताओं को बड़ी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार रहने को कहा है। इस तरह एक बार फिर इस्राएल बहुत बड़ा हिस्सा कब्जाने निकल पड़ा है, जैसा कि उसने 1967, 1983 और 2000 में किया था।
निष्कर्ष तो फिलहाल बेईमानी है, क्योंकि इसपर लगातार अपडेट आता रहेगा लेकिन बड़ी ताकतों के समर्थन मिल जाने से यह निश्चित हो गया है कि इजरायल अब हमले नहीं रोकेगा। दिलचस्प बात यह है, कि अबकी युद्ध में मुख्य प्रतिद्वंदी फिलिस्तीन नहीं, बल्कि ईरान है। और यह लड़ाई अब सिर्फ इस्राएल-फिलीस्तीन ही, बल्कि इनकी आड़ में कई देश अपने हितों के लिए लड़ने लगे हैं। चूँकि 2 सालों में इजरायल में 4 आम चुनाव कराये जा चुके हैं लेकिन किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। हाल ही के चुनाव में भी प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने अपने चुनावी घोषणापत्र में वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के हिस्से को कब्जा लेने का वादा किया था फिर भी उन्हें बहुमत नहीं मिल सका। अब इस लड़ाई के द्वारा उन्हे अपने एजेंडे को पूरा करने का मौका मिल गया है, ताकि वह इजराइल में एक स्थाई सरकार देने के साथ खुद पर चल रहे भ्रष्टाचार की जांच को भी रोक सकें। इसके साथ ही इस्राएल किसी भी कीमत पर ईरान को एक न्यूक्लियर पावर नहीं बनने देना चाहता, इसलिए वह हमास को तोड़कर पर्दे के पीछे से ईरान को बाहर निकालना चाहता है ताकि उसके साथ आर-पार की लड़ाई की जा सके और अमेरिका के साथ होने वाली न्यूक्लियर डील कई सालों तक के लिए पीछे धकेल दी जाए। रही बात अमेरिका और ईयू की, तो वे इस्राएल का समर्थन इसलिए कर रहे हैं ताकि एक कमज़ोर ईरान को आसानी से न्यूक्लियर डील की टेबल पर लाया जा सके। चूंकि राष्ट्रपति बाइडेन ने अपनी चुनावी घोषणापत्र में ईरान न्यूक्लियर डील को पुनः प्रारंभ करने का वादा किया था, इसलिए अब ईरान बड़ी चालाकी से सौदे में लेटलातिफी कर इसे अपना मुख्य हथियार बना रहा है जिससे उसका परमाणु कार्यक्रम निर्बाध चलता रहे, और महाशक्तियों के साथ अंतिम नेगोसिएशन में उसे बढ़त मिल सके। इसीलिए अमेरिका और इयू आज इस्राएल के साथ खड़े हैं। उन्हे यह भी पता है कि जैसे ही ईरान खुलकर इस्राएल के साथ लड़ाई में कूदेगा, तत्काल प्रभाव से ही सऊदी अरब, यूएई और अब्राहम एकॉर्ड में शामिल मुस्लिम देश खुद इस्राएल के समर्थन में आ जाएंगे, जो अभी फिलिस्तीन की पैरवी कर रहे हैं। क्योंकि शिया-सुन्नी के खेल में ये खुद भी एकदुसरे को मिटा देना चाहते हैं। इसलिए खेल जारी है, लेकिन नुकसान यकीनन आम नागरिकों का ही होगा जिसमें इस्राएल भी अछूता नहीं रह सकेगा। हाल ही में इस्राएल के लॉड शहर में दंगे प्रारंभ हो गए हैं जिससे देश में गृहयुद्ध छिड़ जाने की सम्भावना जताई जा रही है इसलिए प्रधानमन्त्री नेतनयाहू के लिए निश्चित रूप से यह भी एक प्राथमिक चिंता का विषय होना चाहिए।
16 May 2021
@Published :
1. #Nav_Pradesh Newspaper, 17th May 2021, Monday, Raipur Edition, Page 04 👉https://www.navpradesh.com/epaper/pdf/7989_Raipur%20all%20page.pdf
2. #Pioneer Newspaper, 18th May 2021, Tuesday, Raipur Edition, Page 06 👉https://www.dailypioneer.com/uploads/2021/epaper/may/raipur-hindi-edition-2021-05-18.pdf