1918 में स्पेनिश फ्लू के 100 सालों बाद आज एक बार फिर कोरोनावायरस महामारी ने 17 लाख पीड़ितों के साथ यूरोप महाद्वीप को अपना केंद्र बना लिया है विशेषकर स्पेन, ब्रिटेन और इटली को। ऐसी परिस्थिति में इस बात की भी चर्चा प्रारंभ हो चुकी है कि कोरोनावायरस संक्रमण में यूरोपियन यूनियन द्वारा उचित मदद मुहैया ना करने की वजह से क्या अब इटली भी ब्रिटेन के बाद यूरोपियन यूनियन छोड़ने वाला दूसरा देश बनेगा? चूंकि इस कोविड-19 महामारी ने अपने संक्रमण और मौतों के आंकड़ों से इटली में राष्ट्रवाद इस कदर जगा दिया है जैसा कभी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी के समय था, हालांकि यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की चर्चाएं प्रारंभ हुई है। इसकी शुरुआत तो मुख्य रूप से तभी हो गई थी जब यूरोप में 2015 में शरणार्थियों का संकट आया था। उस वक्त जर्मनी ने भूमध्य सागर से आने वाले सीरियाई, लीबियाई और इराक़ी शरणार्थियों को शरण देने के लिए पहले तो हां कहा, लेकिन बाद में अन्य यूरोपीय देशों के दबाव में इसे रोक दिया। तब इस रोक का पूरा खामियाजा इटली को भुगतना पड़ा, क्योंकि कई शरणार्थी भूमध्य सागर पार करके पहले ही इटली में आ चुके थे। इटली ने अपने यहां उपजे इस संकट से निपटने के लिए यूरोपियन यूनियन से आर्थिक मदद भी मांगी, लेकिन जर्मनी के दबाव में ईयू ने ना तो कोई आर्थिक सहायता प्रदान नहीं की और न ही शरणार्थियों को अपने यहां नहीं रखना चाहा। उस घटना के बाद से ही इटली के नागरिकों में यह गुस्सा था कि उन्हें यूरोपियन यूनियन से अलग हो जाना चाहिए। आज परिणाम यह है कि इटली की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है और यह देश गरीबी की ओर अग्रसर हो गया है। गरीबी भी इस हद तक की, कि जी7 जैसे विकसित देशों के समूह का सदस्य होने के बाद भी इटली आज चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना में जुड़कर उनके कर्जे से अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने और संसाधन जुटाने में लगा है।

बहरहाल, 2016 में जब ब्रेक्जिट हुआ तब इसे बहुत ही आसान प्रक्रिया समझा गया था, लेकिन इसका अंतिम कानून जनवरी 2020 में पास हुआ यानी यूरोपियन यूनियन छोड़ने में ब्रिटेन को लगभग 4 सालों का समय लग गया। इसी प्रस्ताव के साथ एक ब्रेक्जिट शॉक पोल यानी जनमत संग्रह भी कराया गया था जिसमें मतदाताओं से पूछा गया कि ब्रिटेन के बाद ईयू छोड़ने वाला अगला देश कौन होगा, तब आश्चर्यजनक रूप से अधिकतर लोगों ने इटली का ही नाम लिया। तभी से देश में यह रणनीति बन रही थी, कि भविष्य में ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिससे इटली को ईयू से बाहर निकालने की प्रक्रिया आसान हो सके। इन्हीं कोशिशों का नतीज़ा था कि यूरोपियन यूनियन के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी देश में ईयू का विरोध करने वाली सरकार चुनी गई। वह देश कोई और नहीं, बल्कि इटली था जब 2018 में गॉसिप कॉन्टे प्रधानमंत्री बने। हालांकि यह सरकार 1 साल में ही गिर गई लेकिन दोबारा जब उन्हें सरकार बनाने का मौका मिला तब तक उन्होंने ईयू का विरोध छोड़ दिया था लेकिन 2018 में बनी सरकार ने यह बता दिया था कि किस तरह इटली के मतदाता ईयू छोड़ने का मन बना चुके थे। हाल ही में टेको फर्म ने एक सर्वे कराया, जिसमें 67 प्रतिशत लोगों ने यह माना कि यूरोपियन यूनियन में बने रहना इटली के लिए हानिकारक है। जबकि 2018 में किए गए इसी सर्वे में 45 प्रतिशत लोगों ने ही यह बात स्वीकारी थी । मतदाताओं का मानना था कि यह एक फ्रैंको-जर्मन प्रभाव वाला संघ है इसलिए इटली को इसमें कोई भी फायदा नहीं होने वाला है।

हाल ही में करोना संक्रमण की वजह से इटली के प्रधानमंत्री ने यह बयान दिया था कि इस साल देश की जीडीपी -6 प्रतिशत रहेगी और कर्ज़ बढ़कर जीडीपी का लगभग 150 प्रतिशत पहुंच जाएगा। इस बयान को सुनकर ईयू का समर्थन करने वाले इतालवी भी मानने लगे कि कोविड-19 पर पड़ोसियों और ईयू ने कोई सहायता नहीं की। जबकि दूसरी तरफ रूस ने इस मुसीबत की घड़ी में अपने 14 मिलिट्री एयरक्राफ्ट्स के द्वारा ना सिर्फ अनेकों स्वास्थ्य उपकरण व डॉक्टर्स को भेजा बल्कि रेडिएशन, केमिकल और बायोलॉजिकल डिफेंस के सैनिक भी भेजे। साथ ही चीन ने भी मास्क, वेंटिलेटर, डॉक्टरों की टीम और पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट भेजा। सबसे अद्भुत सहयोग की चर्चा तो उस छोटे से देश की हुई, जिसकी मेडिकल डिप्लोमेसी ने दुनिया में हमेशा वाहवाही लूटी है। वा देश है क्यूबा, जिसने जान की परवाह किए बिना ना सिर्फ इटली बल्कि अनेक देशों में अपने डॉक्टरों की टीम को सहायता के लिए भेजा। परिस्थितियों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इटली के शहरों में जगह-जगह बैनर लगाए गए, जिनमें लिखा था कि हमें फंड की जरूरत है नहीं तो हम गरीबी से मर जाएंगे। मुझे लगता है कि शायद मौतों के आंकड़े और लोगों की इन्हीं परेशानियों को देखते हुए प्रधानमंत्री कॉन्टे सार्वजनिक रूप से रो पड़े थे।

इटली की सरकार ने इस मुसीबत से बाहर निकलने के लिए मार्च में कोरोना बांड का रास्ता निकाला, ताकि वह दुनियाभर के देशों से फंड जुटा सके। लेकिन यूरोपियन काउंसिल में इस कोरोना बांड प्रस्ताव पर जर्मनी, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड ने विरोध कर दिया, साथ ही इटली को यह सलाह भी दी कि वह यूरोपियन स्टेबिलिटी मैकेनिज्म से ही फंड की व्यवस्था करे। यद्यपि यूरोपियन स्टेबिलिटी मैकेनिज्म की प्रक्रिया बहुत ही जटिल है जिसकी शर्तें सदस्य देशों के अनुरूप होंगी, ना कि इटली के। इस घटना और ऐसे जवाब ने इटली के बचे हौसलों को भी तोड़ दिया, साथ ही प्रधानमंत्री कॉन्टे ने भी यह कह दिया कि सबसे बड़े मुसीबत की इस घड़ी में इस संघ ने हमारी कोई सहायता नहीं की। इतना सुनते ही इटली में राष्ट्रवाद अपने चरम पर पहुंच गया, और यह खीझ इतनी बढ़ गई कि देश की जनता ने मन बना ही लिया कि इटली को यूरोपियन यूनियन छोड़ देना चाहिए। हालांकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि प्रधानमंत्री कॉन्टे इस मुसीबत की घड़ी में अतिराष्ट्रवाद का सहारा लेकर एंटी-ईयू भावनाओं को भड़का रहे हैं जिससे अमेरिका, इजरायल, बुल्गारिया की तरह कोविड-19 को नियंत्रित ना कर पाने के लिए विरोध झेलने की जगह इस एंटी-ईयू सेंटीमेंट्स से सत्ता पर उनकी पकड़ और मजबूत हो सके। हाल ही में यूरोपियन काउंसिल के पूर्व प्रेसिडेंट डोनाल्ड टस्क ने सभी सदस्य देशों को सलाह देते हुए कहा था कि यह कोई राजनीतिक खेल नहीं है। लोग मर रहे हैं, इसलिए सभी अमीर देशों को आगे आकर इटली और अन्य पीड़ित देशों की मदद करनी चाहिए। नाराज़गी की पराकाष्ठा इस हद तक पहुंच चुकी है कि पिछले महीने ही इतालवी सीनेटर जियानलूगी पैरागोन ने इटलेक्जिट नाम की एक नई राजनीतिक पार्टी सिर्फ इसलिए बनाई है ताकि वह इटली को ईयू से बाहर निकाल सकें।

निष्कर्ष यह है कि जब कोरोनावायरस का संक्रमण खत्म होगा तो क्या इटली के लोग सरकार पर ईयू छोड़ने का दबाव बनाएंगे? ताकि भविष्य में किसी भी समस्या पर निर्णय लेने का संप्रभु अधिकार सिर्फ इटली का हो। आज इटली में एक खबर भी हवा की तरह ही उड़ रही है कि ईयू के देश इटली की मदद जानबूझकर नहीं करना चाहते, ताकि वो उसे मोहरा बनाकर अपने हितों को साधने के साथ इटली की रणनीतिक संपत्ति का इस्तेमाल कर सकें। इसलिए यह उम्मीद की जा रही है कि महामारी के बाद प्रधानमंत्री गॉसिप कॉन्टे के कार्यकाल में ही यूरोपियन यूनियन छोड़ने का प्रस्ताव लाया जा सकता है, क्योंकि वह पहले ही एक ईयू विरोधी सरकार का नेतृत्व कर चुके हैं। मैं समझता हूं कि राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा और संप्रभुता के नाम पर इटली के नागरिकों के मन में जो राष्ट्रवाद की भावना जागी है उसे जगाए रखने में प्रधानमंत्री कॉन्टे कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, जिससे उनकी राजनीतिक सत्ता चिरंजीवी हो जाए। बहरहाल, हम देखेंगे कि ब्रेक्जिट का निर्णय कितना सही साबित हुआ और इटलेक्जिट का निर्णय मुमकिन हो पायेगा या नहीं।

02 August 2020

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