यह बताने की जरूरत नहीं है कि देश के हालात किस तरह से खराब चल रहे हैं एक-दो राज्य नहीं पूरा भारत ही विरोध प्रदर्शन कर रहा है। असम, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, उत्तरप्रदेश तो जल ही रहे, साथ ही देशभर के महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में लाठियां खाने तक विरोध हो रहे हैं।हालात संभालने की कोशिश भी नाकाम हो चुकी है। बड़ी बात यह है कि सरकार को यह लगा ही नहीं था कि नागरिकता संशोधन बिल को पास करने से इस कदर कि हिंसा और विरोध प्रदर्शन का सामना करना होगा, जिसकी वजह से स्वतंत्रता के बाद पहली बार किसी भी देश यानी जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे का प्रस्तावित दौरा तक रद्द करना पड़ा। अगर सरकार को इसका कोई अंदाजा होता तो शायद विदेश मंत्रालय जापानी प्रधानमंत्री का आगमन गुवाहाटी की जगह किसी और शहर में तय करता या फिर इस विधेयक को कुछ दिनों बाद पास कराया जाता लेकिन जिस तरह की स्थिति निर्मित हुई है उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है और भारत की जो छवि वैश्विक मीडिया में जा रही है वह निश्चित रूप से भारत जैसे महान देश की संस्कृति, विविधता, घर्मनिरपेक्षता के लिए एक खतरनाक चेतावनी है। सरकार बार-बार कह रही है कि असम को इस विधेयक से कोई नुकसान नहीं होगा, प्रधानमंत्री ने ट्वीट करके भी कहा है कि हम असम की संस्कृति, भाषा, संसाधन इत्यादि की रक्षा करेंगे, लेकिन उनकी बात मानने को कोई तैयार ही नहीं है। यहां पर सोचने वाली बात यह है कि आखिर असम जल क्यों रहा है और जापान, ब्रिटेन, चीन, अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश जैसे देश इस पर क्या बातें कर रहे हैं।

हम विदेशी संबंधों और विदेश में भारत की निर्मित हुई छवि की चर्चा करें इससे पहले यह जानते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून क्या है और क्यों इसे लेकर पूरे देश में गुस्सा है। यह संशोधन इसके मूल कानून नागरिकता अधिनियम 1955 में किया गया है और ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है। इससे पहले पांच बार 1986, 1992, 2003, 2005, 2015 में इस कानून में संशोधन किए जा चुके हैं लेकिन इस बार जो संशोधन किया गया है उसमें प्रमुख रूप से भारत के मुस्लिम पड़ोसी देश यानी कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी, ईसाई अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने के लिए यह संशोधन किया गया है। पूरी लड़ाई यहीं से प्रारंभ होती है क्योंकि इससे पहले अधिनियम में किसी विशेष धर्म को लेकर नागरिकता देने का प्रावधान नहीं किया गया था। चूंकि हमारा देश धर्म और पंथनिरपेक्ष है इसलिए यही भारत के संविधान की मूल भावना में शामिल है और मूल भावना को तो संविधान के संशोधन से भी नहीं बदला जा सकता, यह निर्णय खुद सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के केस में दिया है। इसके साथ ही अभी जो बदलाव किए गए हैं वह संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार का भी उल्लंघन करती हैं।

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि देशभर में जो विरोध हो रहे हैं उसमें भी पूरा भारत दो वर्गों में बटा हुआ है। पहला भारत वह है जो संविधान के उल्लंघन को लेकर इस विधेयक का विरोध कर रहा है और दूसरा, नॉर्थ ईस्ट के असम, मणिपुर और त्रिपुरा है जो अपनी भाषा संस्कृति इत्यादि की रक्षा के लिए इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। यहां पर लोग को जानना चाहिए कि इसमें अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय और नागालैंड के लोगों का कोई विरोध नहीं हो रहा है क्योंकि भारत के संविधान की छटवीं अनुसूची की अनुच्छेद 371 और इनर लाइन परमिट के तहत इन 4 राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त है, और हाल ही सीएए लागू होने के बाद राष्ट्रपति ने मणिपुर को भी इनर लाइन परमिट व्यवस्था लागू करने की मंजूरी दे दी है यानी किसी भी भारतीय को इन राज्यों में जाने के लिए सरकार से यात्रा दस्तावेज की आवश्यकता होती है। तो जब कोई भारतीय सामान्य समय में भी बिना परमिट के अंदर नहीं जा सकता तो यहां नागरिकता लेने का तो कोई सवाल ही नहीं है। आसाम और त्रिपुरा को भी छटवीं अनुसूची से सुरक्षा प्राप्त है लेकिन सिर्फ कुछ क्षेत्रों में। इसलिए वहां विशेषकर असम के मामले में चुनौती मिल रही है क्योंकि प्रवासियों को लेकर डर इन सेवन सिस्टर्स राज्यों में स्वतंत्रता से ही थी, लेकिन बड़े स्तर पर प्रवासियों को लेकर यहां प्रदर्शन 1980 के दशक में चला, जिसमें सैकड़ों लोगों की हत्याएं हुईं। जिसके बाद 1985 में प्रदर्शनकारी स्टूडेंट्स, असम सरकार और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता हुआ, जिसे असम शांति समझौता कहा जाता है, और यही आज के प्रदर्शन की मुख्य वजह बनी है। क्योंकि उस समझौते में लिखा है कि जो भी 24 मार्च 1971 के बाद उचित दस्तावेज़ के बिना असम में घुसा है उसे विदेशी घोषित करते हुए निर्वासित किया जाएगा और आसामियों के भाषा, संस्कृति, संसाधनों की सुरक्षा की जाएगी।

फिर भी मुझे नहीं समझ आ रहा है कि सिर्फ एक राज्य असम में ही एनआरसी लागू करने के होने बाद जो प्रतिक्रिया हुई, उसे देखकर भी सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून कैसे लागू किया। बीजेपी का कहना है कि एनआरसी में जो हुआ उसे ठीक करने के लिए नागरिकता संशोधन क़ानून लाया जा रहा है, लेकिन मैं समझता हूं कि इसका मुख्य उद्देश्य कुछ और है। वो ये कि 19 लाख लोगों को असम राज्य का नागरिक नहीं पाया गया। इसका जो परिणाम आया, वो देखकर सरकार के होश उड़ गए। क्योंकि इस सूची में सिर्फ चार से पांच से लाख ही मुसलमान निकले, जबकि 11 से 12 लाख बंगाली हिंदू। सोचिए इस एनआरसी में भारत के पांचवे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का पूरा परिवार बाहर हो गया और कर्नल सनाउल्लाह भी, जिन्होंने 20 साल सेना में सेवा दी और कारगिल युद्ध लड़ा। इसलिए मेरी नज़रों में नागरिकता संशोधन क़ानून के तार एनआरसी से बहुत गहरे तरीके से जुड़े हुए हैं और इन्हें आप अलग कर के नहीं देख सकते। क्योंकि सरकार कोई भी हो, उन्हें सिर्फ वोटर से मतलब होता है, नागरिकों से नहीं। बीजेपी कि दुविधा भी अब यहीं से शुरू हुई क्योंकि जब यह अपडेटेड एनआरसी तैयार किया जा रहा था तो पार्टी ने इसका समर्थन किया था। जिसके कारण उसे असम में हिंदुओं और आदिवासियों का बहुत बड़ा समर्थन मिला और वह 2016 में राज्य की सत्ता पर आसीन हो गई। लेकिन अंतिम एनआरसी जब प्रकाशित किया गया तो बीजेपी ने यह कहते हुए अपनी नीति बदल दी कि इसमें कुछ त्रुटियां रह गई हैं। इसकी वजह थी वे 11-12 लाख बंगाली हिंदू, जो पार्टी के लिए मजबूत वोट बैंक थे। इसलिए सरकार ने हड़बड़ी में गड़बड़ी करते हुए नागरिकता बिल में संशोधन कर दिया। अब असमिया भाषा बोलने वाली लगभग आधी आबादी को लगता है कि अवैध प्रवासियों का पता लगाने और उन्हें वापस भेजने का वादा करने वाली बीजेपी ने उन्हें धोखा दिया है, इसलिए वे मुस्लिम ही नहीं, किसी भी व्यक्ति को अपने यहां नहीं रहने देने के लिए विरोध कर रहे हैं, भले ही वो हिन्दू क्यों न हो।

देखा जाए तो कोई भी कानून गलत नहीं होता, लेकिन प्रत्येक कानून में कोई लूप होल होता है। मेरा सवाल सरकार से सिर्फ इतना है कि आपने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए यह संशोधन किया है, तो मालदीव के अल्पसंख्यक हिंदू, श्रीलंका के तमिल हिंदू, म्यांमार के अल्पसंख्यक हिंदू, नेपाल के मधेशी और गोरखा, तिब्बत के तिब्बती और यदि किसी देश से कोई नास्तिक नागरिकता मांगेगा, तो सरकार के पास क्या जवाब होगा, और इसी संशोधन में सरकार ने अपने इन पड़ोसियों को शामिल क्यों नहीं किया। हालांकि मुझे ये बात अच्छे से पता है कि दुनियां के किसी भी कोने से आने वाले व्यक्ति को नागरिकता पहले की तरह ही मिलती रहेगी, क्योंकि 1955 के मूल कानून में संशोधन हुआ है, न कि पूरा कानून बदला गया है। जबकि पूरे देश में इसी अफवाह को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। इसका भी एक कारण है, कि भाजपा हर मुद्दे को सिर्फ घर्म के चश्मे से देखती है। इन सबके बीच आज विदेशों में भारत की जिस तरह की छवि प्रसारित हो रही है, निश्चित ही उसने जड़ तक जाकर हमारी आत्मा को ठेस पहुंचाया है। जो भारत दुनियाभर में वसुधैव कुटुंबकम् की बातें करता हुआ नहीं थकता था, आज धर्म आधारित क्रियाकलापों के कारण सबके ताने सुन रहा है। अब इससे ज्यादा और क्या होना चाहिए कि अमेरिका की धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी आयोग देश के गृह मंत्री अमित शाह और गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहा है और इसी कि वजह से छोटे से देश बांग्लादेश के गृह मंत्री और विदेश मंत्री ने अपनी यात्रा तक रद्द कर दी। पाकिस्तान तो वैसे ही हमलावर है, पता नहीं हमारे रिश्ते अब अफगानिस्तान से कैसे होंगे, क्योंकि आज वह पूरे सार्क नेशन में हमारा सबसे अच्छा मित्र है और इस नागरिकता संशोधन बिल में भारत ने प्रत्यक्ष रुप से अफगानिस्तान को शामिल करके यह साबित कर दिया है की पंजाबी और सिख जैसे अल्पसंख्यकों पर अफगानिस्तान भी अत्याचार कर रहा है।

सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि 15 सितंबर को जो जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे भारत आने वाले थे, उसमें पूरे उत्तर पूर्व राज्यों के लिए 13000 करोड़ रुपए का निवेश भी था जो अब रुक गया। चूंकि भारत अपनी एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत पूर्वोत्तर को भारत का ईस्ट गेटवे बनाना चाहती है, लेकिन ये यात्रा टालने से भारत की नीति को बहुत करारा झटका लगा है। ऐसे हालात में कैसे कोई इकोनॉमिक कॉरिडोर यहां बनेगा जहां से हम अपना सामान दक्षिणपूर्व एशिया में भेज सकेंगे। निवेशक भी यहां हालात को देखते हुए निवेश करने से डरेंगे, फिर तो हमारी एक्ट ईस्ट नीति केवल भाषण बनकर रह जाएगा। जापान मैगज़ीन ‘निक्केई एशियन रिव्यू’ ने इस पूरे मसले पर एक लगभग 800 शब्दों का ओपीनियन लेख प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है कि “भारत के ये बदलाव अनैतिक और ख़ुद को हराने वाले हैं”। लेख में कहा गया है कि तथाकथित अवैध प्रवासियों से निबटने का भारतीय रणनीति का वास्ता धार्मिक भेदभाव से है। इतना ही नहीं, विदेश नीति और सुरक्षा पर भी इसका गंभीर असर होगा। लेख में चेताया गया है कि भारत को इस बात से डरना चाहिए कि अगर दूसरे देश भी उसकी प्रवासी नीतियों को अपनाने लगें तो क्या होगा। क्योंकि भारत की एक बड़ी आबादी क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों से दूसरे देशों में रहती है। इसी तरह 6 दिन तक लगातार अमेरिका कि न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, ब्रिटेन की बीबीसी और द गार्जियन, कतर कि अल जज़ीरा और गल्फ न्यूज़ ने संपादकीय लिखकर भारत को चेतावनी दी है, कि भारत इन सब कार्यों को रोके। इधर मुस्लिमों का लीडर बनने कि चाह में मलेशिया के प्रधानमंत्री ने भी खुलकर चेतावनी दी है कि अगर हम भी अपने देश में इसी तरह का कानून लागू कर दें तो भारतीयों का क्या होगा?। संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने बयान जारी करके कहा है कि सीएए भेदभावपूर्ण है और इसलिए सरकार को इस क़ानून पर पुनर्विचार करना चाहिए। वहीं, अमरीकी विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने कहा है कि भारत को अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों का ध्यान रखते हुए इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार बरक़रार रहें. और तो और हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति की दौड़ में शामिल भारतीय अमेरिकी तुलसी गेबार्ड को सीएए कि वजह से भारतीय और हिंदू होने के कारण विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा।

बीजेपी जल्दबाज़ी में अपना कोई राजनीतिक एजेंडा कामयाब करना चाहती थी। उन्हें पता है कि अर्थव्यवस्था जैसे मामलों में वो पहले ही बैकफुट पर हैं तो हम हिंदू एजेंडा आगे बढ़ाएंगे। उन्हें लगा कि कश्मीर, राम मंदिर की तरह नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी लागू कर देंगे तो हिंदू वोट हमारे पक्ष में जाएंगे। पार्टी बहुत जल्दी में थी और बीजेपी की यही कोशिश उत्तरपूर्व में बैकफ़ायर कर गई। मैं समझता हूं कि इन प्रदर्शनों को हिंसा में बदलने से पहले ही रोका हा सकता था। और उसे रोक सकते थे हमारे भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी, जिन्होंने देश भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों को देखने के बाद भी सिर्फ कुछ ही दिनों में इस बिल पर हस्ताक्षर करके इसे कानून बना दिया। जबकि ना जाने कितनी सारी याचिकाएं सालों साल तक महामहिम के पास लंबित रहती हैं। अब सारा दारोमदार भारत का सर्वोच्च न्यायालय पर टिका है  इसके साथ ही जब तक बड़े लेवल पर विधायिका और कार्यपालिका सहित मुख्य रूप से पुलिस सिस्टम में सुधार नहीं होगा तब तक लोकतंत्र पर खतरा इस तरह बढ़ता ही रहेगा। और यही मौका भी है सुप्रीम कोर्ट के पास, कि वह इन सुधारों को अपने विशिष्ट अधिकारों का प्रयोग करते हुए तत्काल प्रभाव से लागू करे, अन्यथा सरकार के ऊपर छोड़ा गया तो वह उन्हें बरसों तक लटका कर रखेंगी। देखा जाए तो यह वही दौर चल रहा है जो 2013 में अन्ना हजारे के बुलावे पर पूरे देश में हुआ था यानी एक बार फिर पूरा देश किसी प्रदर्शन और विरोध के लिए एकजुट हो रहा है निश्चित रूप से यह सरकार के लिए खतरे की घंटी ही है, और इन प्रकरणों से कुछ बातें तो साफ दिखती हैं कि अब हर चुनाव में पाकिस्तान का नाम चुनाव नहीं जीता जा सकता। दूसरा, जब आपके हिसाब देने की बारी आएगी तो आप पिछली सरकारों का बहाना नहीं बना सकते। अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है लोग बेरोजगार होते जा रहे हैं ऐसी स्थिति में अब हर मुद्दे को देश के हिंदू मुस्लिम से नहीं जोड़ सकते। बेहतर होगा, सरकार अपने नागरिकों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए इस पर पुनर्विचार करे, ताकि प्रदर्शन रुकें और भारत विश्व पटल पर और बेइज्जत ना हो।

31 दिसम्बर 2019

@Published :

1. AmritSandesh Newspaper, 05 January 2020, Sunday, Itwari (Whole #Chhattisgarh Edition), Front Page

2. DopaharMetro Newspaper, 07 January 2020, Tuesday, #Bhopal Edition, Page 04 (Editorial)

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