इजरायल, दुनियां का एकमात्र यहूदी देश। जिसे आज भी दुनिया के 29, विशेषकर मुस्लिम देश मान्यता नहीं देते, जिनमें हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि छोटा सा बौद्ध देश भूटान भी शामिल है। इस देश ने न सिर्फ अपने समुदाय का मानव इतिहास में सबसे दुर्दांत नरसंहार देखा बल्कि एक राष्ट्र बनने के बाद बेंजामिन नेतन्याहू के रूप में राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री का सबसे लंबा कार्यकाल भी देखा। लेकिन जिस इजरायल को कोई देश आंख दिखाने की हिम्मत नहीं कर पाता था, वह पिछले दो सालों में तीन अस्थाई सरकार बनने के बाद से अपने लोकतंत्र के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है। हालात इस हद तक ख़राब हैं कि जिस इजराइल की जनता कभी भी अपने नेताओं का विरोध इसलिए नहीं करती थी, ताकि कोई अरब देश उन्हें कमजोर समझकर हमला न कर दे, आज वही जनता अपने प्रधानमंत्री को इजरायली इतिहास का सबसे बड़ा भ्रष्टाचारी कहकर उनका निवास घेर रही है। दूसरी तरफ वह युवा वर्ग है, जो कोरोनावायरस की रोकथाम सही ढंग से नहीं कर पाने के कारण चौपट हो चुकी अर्थव्यवस्था और उससे उपजी बेरोजगारी से तंग आकर खुली सड़कों पर प्रदर्शन कर रही है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इजरायल में ऐसा क्या चल रहा है, जिससे कि तीनों तरफ मुस्लिम राष्ट्रों के बीच घिर होने के बाद भी इजरायल सुरक्षित है और अप्रत्यक्ष रूप से सबकी नीतियों को बदलता हुआ संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, मोरोक्को जैसे देशों से राजनयिक संबंध स्थापित कर प्रत्यक्ष मान्यता भी पा रहा है। तो इन सबका कारण है अमेरिका, विशेषकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जिन्होंने बेंजामिन नेतन्याहू को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए वैश्विक संगठनों और ईरान पर लगातार दबाव बनाए रखा।

कहा जाता है कि इजरायल की सुरक्षा नीति बहुत ही खतरनाक है। इतना खतरनाक कि जासूसी, रक्षा और दुश्मनों से बदला लेने में दुनियां का कोई देश इसके बराबरी में नहीं। चाहे युगांडा में प्लेन हाईजैक से अपने नागरिकों को बचाना हो, या विश्व युद्ध में जर्मनी से बचकर भाग चुके नाज़ी जनरलों को ढूंढ-ढूंढकर मारना हो। चाहे 1991 में सऊदी अरब और कुवैत को भनक लगे बिना 35 हवाई जहाज़ों से लगातार 36 घंटे तक 14 हज़ार से ज़्यादा इथियोपियाई यहूदियों को एयरलिफ्ट करना हो या सिर्फ 6 दिनों में मिस्र, जॉर्डन, और सीरिया को हराना हो या फिर फिलिस्तीन को एक संप्रभु राष्ट्र बनने से रोकना। इजरायल ने ये सब कर दिखाया क्योंकि इस देश ने पहले ही समझ लिया था कि लड़ाई युद्ध से नहीं, बल्कि जासूसी से लड़ी जाती है। यह आश्चर्यजनक है कि भारत जैसा विशाल देश भी अब पाकिस्तान के विरुद्ध इसराइली नीति का प्रयोग करता है। लेकिन यह सब हमेशा से ऐसा नहीं था। जब यहूदियों को यरूशलेम के लिए, एक छोटे से देश इजरायल के साथ फिलिस्तीन में बसाया गया, तो मध्य-पूर्व में मौजूद सभी मुस्लिम देशों ने इसका विरोध किया और इजरायल को मिटा देने की कसमें खायीं, जिसका नेतृत्व सुन्नी मुस्लिमों की तरफ से सऊदी अरब और शिया मुस्लिमों की तरफ से ईरान ने किया। लेकिन वर्तमान इजरायल की परिस्थितियां भिन्न है और अब इसकी समस्या घरेलू से बढ़कर वैश्विक बन चुकी है। क्योंकि एक राष्ट्रवादी पार्टी द्वारा सिर्फ सत्ता को बचाए रखने के लिए जिन उपायों की संभावना पर बात की गई उसने पूरी दुनिया में इजराइल को कटघरे में खड़ा कर दिया है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने हमेशा ही इसकी आलोचना की, फिर भी इजराइल नहीं माना। लेकिन पिछले साल हुए चुनाव में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा जीतकर आने पर जॉर्डन वैली और गोलन हाइट्स को पूरी तरह कब्जा कर लेने के वादे ने पूरी दुनिया का मूड खराब कर दिया। तब यूरोपियन यूनियन के साथ कई देशों ने प्रतिबंध लगाने की धमकी दी, क्योंकि अब उन सभी के डर को नेतन्याहू की जीत ने हकीकत में बदल दिया है।

अब यहीं से पूरी दुनियां के लिए एक बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया, जिसने न सिर्फ इसराइल की   ताकत को पूरे मध्य-पूर्व में शिखर तक पहुंचा दिया बल्कि 57 देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली मुस्लिम राष्ट्रों के संगठन को भी दो गुटों में बांट दिया। अब एक तरफ ईरान और तुर्की हैं, तो दूसरी तरफ सउदी अरब एवं यूएई। वास्तव में आज जो भी देश अमेरिका के बैनर तले इजरायल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य कर रहे हैं, उस सन्दर्भ में देखें तो हकीकत यही है कि बिना अपना नुकसान कराए इजरायल ने इन मुस्लिम देशों का तुष्टिकरण करके, सिर्फ़ खुद को ही मजबूत किया है। हालांकि इजरायल यह सब कुछ भी नहीं कर पाता, यदि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी पूरी मध्य-पूर्व नीति को इस्राएल पर केंद्रित ना करते। राष्ट्रपति ट्रंप ने न सिर्फ इजरायल की मदद की बल्कि उसे मजबूत बनाने के लिए यूएनएचसीआर और यूनेस्को जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से बाहर निकलने के साथ, ईरान न्यूक्लियर डील और येरूशलम को तेल अवीव से हटाकर इजरायल की राजधानी बनाने की मान्यता देने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी। जब इतनी चीजें भी उन्हें कम लगीं, तो इजराइल में चुनाव से पहले वर्ल्ड ऑर्डर को पूरी तरह चेंज करते हुए दुनियाभर में विवादित इजरायली सेटेलमेंट्स और गोलन हाइट्स को इजरायल के संप्रभुता के अंतर्गत मान्यता दे दी और बाद में इजरायल के अनुकूल एक इसराइली पीस प्लान भी ज़ारी कर दिया। जिसके तहत फिलीस्तीन अगर पूरा येरुशलम, जॉर्डन वैली सबकुछ इसराइल को दे दे, तो फिलीस्तीन को एक नए संप्रभु राष्ट्र के रूप में वैश्विक मंचों पर मान्यता देने के लिए दृढ़ प्रयास किया जायेगा।

सबसे पहले हमें समझना होगा कि आखिर एक छोटा सा देश अमेरिका के लिए इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया, क्योंकि इजरायल बनने के बाद से इतना बड़ा पॉलिसी स्विफ्ट अमेरिका ने अपने 70 सालों के इतिहास में कभी नहीं किया। दरअसल, जब से मध्य-पूर्व में तेल और गैस के भण्डार मिले, अमेरिका इनके उत्पादक देशों पर निर्भर हो गया। लेकिन जब 1967 में इजरायल ने अरब देशों को सिर्फ 6 दिनों में हरा दिया तब अमेरिका को इजराइल के रूप में खाड़ी देशों के बीच की प्रतिद्वंदता और आक्रामकता को रोककर रखने वाला एक मजबूत साथी मिल गया और उसने इसराइल को अपना रणनीतिक सहयोगी बनाने के साथ आधुनिक तकनीकों का हथियार मुहैया कराया। इसी भय का फायदा उठाकर अमेरिका ने अपने ऊर्जा स्रोतों कि सुरक्षा बनाए रखने के लिए न सिर्फ सउदी अरब और कतर जैसे देशों की सैन्य सुरक्षा का जिम्मा अपने हाथ लिया बल्कि अपने सैन्य ठिकाने भी इन क्षेत्रों में बना लिये, और खाड़ी देशों को वर्चस्व की लड़ाई में झोंककर अपने अमेरिकी हथियारों का सबसे बड़ा बाज़ार भी खड़ा कर दिया।

वर्तमान परिपेक्ष्य के साथ निष्कर्ष की बात करें तो इजराइल के मामले में डोनाल्ड ट्रंप अपने पूर्ववर्तियों से ज़्यादा अप्रत्याशित साबित हुए। फिर भी मेरे अनुमान से यह उस चुनावी वादे का ही हिस्सा है जिसके गर्भ में वोट बैंक की राजनीति छुपी हुई है। दरअसल, अमेरिका में रहने वाले इवेंजेलिकल क्रिश्चियन के 80 प्रतिशत वोटर्स ट्रंप के समर्थक हैं और इजरायल का समर्थन करते हैं, इनके अनुसार बाईबिल की एक मान्यता है कि जीसस क्राइस्ट का धरती पर पुनः आगमन तभी होगा जब इजराइल एक महान इसराइल बने और येरूशलम इजरायल के पास हो। इसीलिए डोनाल्ड ट्रंप खुलकर इजरायल के साथ राजनीतिक और राजनयिक सहयोग कर रहे हैं। दूसरा कारण डोनाल्ड ट्रंप का कट्टर इस्लामिक विरोध भी है, चूंकि अब अमेरिका खुद तेल उत्पादन करने के साथ सबसे बड़ा निर्यातक भी बन चुका है और सीरिया और अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को निकल रहा है, इसलिए ट्रंप किसी मुस्लिम देश की नाराज़गी की परवाह किए बिना जेहाद और कट्टरता का विरोध करते हैं। बहरहाल, 2018 में उत्तर और दक्षिण कोरिया के रिश्ते सामान्य करने की नाकामयाब कोशिश के बाद, एक बार फिर राष्ट्रपति ट्रंप को अब्राहम एकॉर्ड के ज़रिए ऐतिहासिक इजरायल और यूएई के संबंधों को नई ऊंचाई देने के मद्देनजर 2021 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया है, इसलिए यह देखना अब दिलचस्प होगा, कि चीनी शीत युद्ध एवं कोरोनावायरस महामारी के बीच फंसे होने के बाद भी डोनाल्ड ट्रंप शांति पुरस्कार लेने के लिए अपनी सत्ता बचा पाते हैं या नहीं।

28 December 2020

@Published :

1. #Nav_Pradesh Newspaper, 28th September 2020, Monday, Raipur Edition, Page 04 👉https://www.navpradesh.com/epaper/?date_id=28-09-2020 

2. #Amrit_Sandesh Newspaper, 01st October 2020, Thursday, Raipur Edition, Page 04

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