ईरान और अमेरिका में तनाव के बीच ईरानी राजनयिक ने संयुक्त राष्ट्र, रूस और चीन को छोड़कर शांति बहाली के लिए भारत को मध्यस्थता करने का प्रस्ताव देकर प्रत्यक्ष रूप से भारत को भी इस विवाद के केंद्र में पहुंचा दिया है। हालांकि इस क्षेत्र में भारत सैन्य रूप से बड़ा खिलाड़ी है इसलिए यह हमारा निजी कर्तव्य तो था ही, कि हम मामले को शांत करने की कोशिश करें, क्योंकि इस संभावित खतरे से सबसे ज़्यादा नुकसान हमें ही उठाना होगा, इसका असर एक ही दिन में तेल, रुपया और शेयर बाज़ार में दिख गया। लेकिन अगर इरानी हमले में अमेरिकी संपत्ति को भारी नुकसान हुआ है और अमेरिका जवाबी हमला करने कि सोच रखता है तो कहीं भारत का ये दांव हमपर ही उल्टा ना पड़ जाए, इससे भारत की मध्यस्थता छवि को भी धक्का लगेगा

उत्तर कोरिया हो या ईरान, मध्य-पूर्व एशिया हो फिर भारतीय उपमहाद्वीप, इन सब में कोई भी ऐसी जगह नहीं जहां पिछले 50 सालों से शांति या स्थिरता रही हो। खाड़ी देशों में अशांति तब से प्रारंभ हुई जब से वहां के सभी देशों में तेल और गैस के प्रचुर भंडार मिले हैं। ऐसे में एक देश ने सऊदी अरब, कुवैत, कतर, इराक़, ईरान, बहरीन, ओमान, यूएई, जॉर्डन जैसे देशों को राजसत्ता से बेदखल करने का डर दिखाकर वहां की ज़्यादातर कुओं से तेल एवं गैस निकालने और बेचने पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। जिसके बाद ही 1974 से एक कागज के टुकड़े डॉलर को इस दुनियां की सबसे ताकतवर मुद्रा बना दिया गया। जिन देशों का ज़िक्र ऊपर है वे सभी कभी उस देश के सबसे करीबी साथी रहे, जिसमें आज का दुश्मन ईरान भी शामिल है। अस्थिरता की इस कड़ी में मध्य पूर्व का एक प्रमुख दुश्मन इजरायल भी है, जिसने अपनी आज़ादी के बाद से ही इन सभी मुस्लिम राष्ट्रों की नाक में दम करके रखा है। 1967 में जॉर्डन, सीरिया और मिस्र जैसे बड़े देशों को सिर्फ 6 दिनों में एकसाथ युद्ध में हराकर इन्हें घुटनों के बल ला चुका है। इसलिए आज कि जो भी परिस्थिति इस क्षेत्र में चल रही है उसके केंद्र में है परमाणु और तेल एवं गैस और जिनके कारण यह सब है वो हैं इजरायल, सऊदी अरब और ईरान। ऐसे में फिर वही एक देश आगे आया और उसने इन सभी देशों को उसके दुश्मनों से सुरक्षा करने की गारंटी खुद पर ले ली, और पीछे से उन सबको एक दूसरे के खिलाफ लड़ाते हुए अपने हथियार बेचने लगा, साथ ही धीरे धीरे सभी के यहां अपनी नौसेना, वायु सेना और थल सेना का बेस भी बना लिया। उस चालक देश का नाम है अमेरिका, और आज उन्हीं में से दो प्रमुख सैन्य बेस यानी इराक़ के अनबर प्रांत में स्थित एन अल-असद एयर बेस और इरबिल शहर के ग्रीन जोन बेस में ईरान ने ऑपरेशन शहीद सुलेमानी के तहत् सुबह 3:30 बजे अपने फतेह-313 और क्वाम मिसाइल से हमला कर दिया। मध्य पूर्व क्षेत्र में यह वे सैन्य ठिकाने हैं जिन पर अमेरिका ने 15-20 बिलियन डॉलर खर्च किया है जो इतना कीमती है कि इतने पैसे 100 से ज्यादा देशों की जीडीपी भी नहीं होगी। इसी दौरान एक यूक्रेनियन एयरप्लेन भी क्रैश हो गया जिसमें 176 लोगों की मौत हो गई साथ ही बुशहर परमाणु ऊर्जा संयंत्र से 30 किलोमीटर दूर एक 4.9 तीव्रता का भूकंप भी आ गया। ये सभी मामले एक दूसरे से कनेक्ट है और आज सुबह ईरान ने यह मान लिया है कि वह प्लेन ईरानी मिसाइल लगने से ही गिरी थी क्योंकि इरान अलर्ट मोड में था और जब वह प्लेन इरानी एयर स्पेस से गुजर रहा था तो एंटी मिसाइल सिस्टम अपने आप एक्टिवेट हो गया और उसके मिसाइल ने प्लेन को मार गिराया।

ऐसा क्यूं है, यह जानने से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में बनी अस्थिरता भी जाननी होगी। शुरुआत भारत से करें तो विश्व का एक महान लोकतंत्र होने के कारण फिलहाल तो यहां शांति और स्थिरता है लेकिन पड़ोसी देशों चीन व पाकिस्तान के पास परमाणु बम और मिसाइल प्रौद्योगिकी होने के कारण इस पूरे क्षेत्र में अस्थिरता बनी हुई है। पड़ोसी देश अफगानिस्तान के मामले में यह अशांति तो 1979 से आज तक जारी है और उसका भी जिम्मेदार कोई और नहीं यही अमेरिका है जिसने सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में मुजाहिद्दीनों को हथियार सप्लाई किया और रूस के वहां से चले जाने के बाद आज खुद ही अपने तैयार किए आतंकवादियों से लड़ रहा है। उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम भी किसी से छुपा नहीं है जिसने तमाम प्रतिबंधों को झेलने के बाद भी परीक्षण करके ही दम लिया। आज स्थिति यह है कि वहां के सुप्रीम लीडर किम जोंग उन अमेरिकी राष्ट्रपति को सनकी बुड्ढा तक कह रहे हैं फिर भी बिना पूछे देशों पर हमला करने वाला वह देश अमेरिका किम को जन्मदिन की बधाईयां देकर शांति वार्ता करना चाहता है। पूरे लेख का सार यही परमाणु तकनीक की मांग है जिसकी लड़ाई मई 2018 से प्रारंभ हुई, जब डोनाल्ड ट्रंप ने इजरायल की खातिर ईरान न्यूक्लियर डील तोड़कर उसपर प्रतिबंध लगा दिया, ताकि फिर से मनमाफिक न्यूक्लियर डील और बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम पर रोक लगाने के लिए ईरान को बातचीत की मेज़ पर लाया जा सके। जबकि ईरान इस परमाणु तकनीक को हासिल कर इजरायल का नामोनिशान मिटाने और सुन्नी बहुल सऊदी अरब को अपने घुटनों पर लाकर मध्य पूर्व क्षेत्र पर राज करने के अपने उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहता है।

लेकिन हाल ही में पूरे मध्य पूर्व एशिया में स्थिति तब विस्फोटक बन गई जब से अमेरिका ने अपने ड्रोन से ईरान के रेवोल्यूशनरी गार्ड की एक शाखा कुद्स फोर्सेस के चीफ जनरल क़ासिम सुलेमानी को इराक़ कि राजधानी बगदाद में हवाई हमले में मार दिया। इस घटना के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि मेरी आदेश पर दुनिया के सबसे बड़े आतंकी सुलेमानी की हत्या की गई है उसे बहुत पहले मार दिया जाना चाहिए था क्योंकि वह हज़ारों अमेरिकी सैनिकों की मौत में शामिल था और फिर से हमारे राजनयिकों व सैनिकों पर हमले कि योजना बना रहा था। अमेरिका ने पिछले साल ही ईरान कि रेवोल्यूशनरी सेना को आतंकवादी संगठन घोषित किया था, इसलिए अमेरिका यह ज़ोर देकर कह रहा है कि उसने सेना के किसी कमांडर को नहीं एक आतंकी को मारा है। इससे फिलहाल ईरान, अमरीका व मध्य पूर्व में रिश्ते काफ़ी तनावपूर्ण हैं। ईरान के सुप्रीम लीडर खुमैनी और राष्ट्रपति हसन रूहानी ने सुलेमानी की जनाजे के दौरान ही 10 लाख से ज्यादा भीड़ से यह वादा किया था कि ईरान इसका बदला जरूर लेगा, जिसके बाद से ही वहां की मस्जिदों में लाल झंडा लहराने लगा। मतलब साफ था कि युद्ध या तो शुरू हो चुका है या होने वाला है। साथ ही ईरान ने अमेरिका के सहयोगियों को भी चेतावनी दे दी है कि वे अपने यहां मौजूद बेस का इस्तेमाल अमेरिका को ना करने दें नहीं तो उन्हें भी निशाना बनाया जाएगा। दूसरी ओर अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी यह धमकी दी कि ईरान के 52 ठिकाने अमेरिका के निशाने पर हैं जिसमें सांस्कृतिक इमारतें भी शामिल हैं। ट्रंप ने यह 52 की संख्या इसलिए कहीं क्योंकि 1979 के ईरानी क्रांति के दौरान 52 अमेरिकी राजनयिकों को लगभग 440 दिनों तक दूतावास में बंदी बनाकर रखा गया था।

ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जिन सांस्कृतिक धरोहरों को निशाना बनाने की बात कर रहे हैं, क्या वो मुमकिन है! क्योंकि अमेरिका और ईरान दोनों ने ही 1972 की वर्ल्ड हेरिटेज कन्वेंशन, 1974 की हेग कन्वेंशन ऑन द प्रोटेक्शन ऑफ कल्चरल प्रॉपर्टी इन आर्म्स कॉन्फ्लिक्ट पर हस्ताक्षर किया है जिसका उल्लंघन आसान नहीं होगा। वैसे भी हमें समझना होगा कि ईरान सिर्फ एक देश नहीं है बल्कि वह दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता में से एक है जहां पर 28 से ज्यादा धरोहर यूनेस्को में शामिल हैं इसलिए वे धरोहरें सिर्फ इरान के नहीं बल्कि पूरी दुनिया की हैं जिसमें हमारा प्राचीन इतिहास भी शामिल है। वैसे भी हम देख ही चुके हैं कि किस तरह 2001 में अफगानिस्तान में गौतम बुद्ध की 3 से 6 ईसा पूर्व पुरानी मूर्ति को तालिबानियों ने तोड़ दिया था। इसी तरह 2015 में इस्लामिक स्टेट ने सीरिया के प्राचीन शहर पालमिरा को भी पूरा बर्बाद कर दिया था।

बहरहाल ईरान ने कहा है कि उसने यह कदम संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सातवें अध्याय के अनुच्छेद 51 के तहत आत्मरक्षा के लिए उठाया है और अमेरिका को चेतावनी दी है कि वह जवाबी कार्यवाही करने से बचे वरना अब अमेरिका के 100 टारगेट हमारे निशाने पर हैं। रेवोल्यूशनरी गार्ड ने भी पत्र जारी करते हुए कहा है अमेरिका ने अगर हम पर जवाबी कार्रवाई की तो इसराइल में हिज्बुल्लाह हमले करेगा। यह भी विचारणीय साहस है कि ये सब होने से ठीक पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ने ट्वीट करते हुए कहा था कि अमेरिका ने हाल ही में 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च करके दुनिया के बेहतरीन हथियार लिए हैं और अगर इरान दुस्साहस करता है तो कुछ न्यू ब्रांड और खूबसूरत हथियार बिना हिचक के हम भेज देंगे, यह उसी तरह की धमकी थी जो आज से 47 साल पहले 1973 में अमेरिका के 37वें राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने देते हुए कहा था कि मैं अपने कार्यालय में जाकर केवल एक फोन उठाऊंगा और अगले 25 मिनट में 7 करोड़ लोग मर चुके होंगे, तो अब देखना होगा की अमेरिका क्या जवाबी कोशिश करता है क्योंकि इसी साल उसके यहां राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं और हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस ने ईरान पर सैन्य हमला करने की अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्तियों को भी सीमित कर दिया है।

हालांकि दुनियाभर के विश्लेषक मान रहे हैं कि इरानी हमले के बाद ट्रंप ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह मान लिया है कि अमेरिका खुले तौर पर ईरान के साथ युद्ध में नहीं जा सकता, क्योंकि उनको बहरीन के शेख ईसा एयरबेस व खलीफा-इब्न-सलमान पोर्ट में 7000 सैनिक व पांचवी फ्लीट, यूएई के हार्मुज खाड़ी, अल-ढफरा, जेबेल-अली, फुजैराह नेवलबेस में 5000 सैनिक, कतर के अल-उदीद, सायलीह बेस में 10000 सैनिक, इजरायल के मशाबिन एयरबेस, तुर्की के इज्मिर, इनरलिक एयरबेस में 2500 सैनिक, ओमान के सल्लाह, डुकम पोर्ट में 600 सैनिक, अफगानिस्तान में 12000, कुवैत में 13000, इराक़ में 5200, सऊदी में 3000 सैनिकों से साथ इसी क्षेत्र के 20 देशों में स्थित अपने 70 हजार से ज्यादा सैनिकों और 100 से ज्यादा सैन्य ठिकानों की चिंता है। क्योंकि अगर ईरान किसी भी दूसरे देश में अमेरिकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाएगा तो उससे ट्रंप और अमेरिका दोनों की छवि खराब होगी, और यह निश्चित है कि इरान का पहला निशाना इजरायल, सऊदी अरब और इराक़ ही होंगे, क्योंकि यहां पर ईरान प्रत्यक्ष नहीं बल्कि उसके समर्थित विद्रोही गुट लड़ाई लड़ेंगे, जैसे हुती विद्रोही यमन में, लेबनान में हिज्बुल्ला, फिलिस्तीन में हमास,  बहरीन में अल अस्तर, इराक़ में असैब-अहल-अल हक एवं बदर विद्रोही, अफगानिस्तान में लिवा फाटेमियोन सीरिया में 313 फोर्सेस। इसलिए ट्रंप ने धीरे से खुद को शांतिप्रिय दिखाकर दूर की चाल चलते हुए ईरान पर अधिक प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है साथ ही सुरक्षा परिषद के अन्य साथियों से भी इसमें सहयोग मांगा है ताकि ईरान के न्यूक्लियर पॉवर बनने कि उम्मीदों को रोका जा सके। इन सब के बीच में इराक़ी प्रधानमंत्री महीदी ने फाइनल सॉल्यूशन के रूप में सभी विदेशी सैनिकों को देश छोड़कर चले जाने को कहा है, जिससे यह पूरा गतिरोध रुक सके लेकिन अमेरिका ने इससे साफ मना कर दिया इन्हीं सब को देखते हुए भारत ने भी अपने सामुद्रिक हितों की रक्षा के लिए ऑपरेशन संकल्प के तहत जहाज़ों को तैनात कर दिया है।

11 जनवरी 2020

@Published :

1. AmritSandesh Newspaper, 19 January 2020, Sunday, “#Itwari” All editions of #Chhattisgarh, Front page

2. NavPradesh Newspaper, 17 January 2020, Friday, #Raipur+#Bhopal+#Ranchi Editions, Page 04 (Editorial) https://www.navpradesh.com/epaper_pdf/epaper.php?date_id=17-01-2020

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