अफगानिस्तान, यह दुनिया का वह देश है जिसने आधुनिक विश्व में सबसे ज्यादा समय तक युद्ध झेला है। वह भी ऐसे समय में, जब बड़े-बड़े विश्वयुद्ध और औपनिवेशिक ताकतों से छुटकारा पाने के लिए लड़ने वाले देशों के बीच भी इतनी लंबी लड़ाई नहीं हुई। पहले यह देश अपने राजनीतिक उथल-पुथल के कारण गृह युद्ध से लड़ता रहा बाद में 1979 से लेकर 1989 तक सोवियत संघ के साथ लड़ाई की और 2001 से लेकर अब तक यहां के नागरिक तालिबान और उसके अप्रत्यक्ष सरगना पाकिस्तान से लड़ रहे हैं। साथ ही साथ देश में शांति लाने के लिए जो हजारों अमेरिकी सैनिक कर्फ्यू लगाकर रात दिन अफगानिस्तान की सुरक्षा कर रहे हैं, यह देश उनसे भी तो अपनी आजादी के लिए आखिर लड़ ही रहा है, क्योंकि वे सभी अपनी निगरानी से आजादी चाहते हैं। ऐसे में एक और देश यहां अपनी नींव मजबूत कर रहा है, जिसका मकसद कूटनीतिक से ज़्यादा दोस्ताना है। जो यहां के हर एक वाशिंदे की रग – रग में प्यार भरकर लंबे समय से चले आ रहे उसकी अस्थिरता को स्थिर करना चाहता है। वह देश है भारत, जिसने अफगानिस्तान को समृद्ध बनाने के लिए अपने हजारों करोड़ों रुपए उसके विकास के लिए खर्च किए हैं चाहे वह राजनीति हो, शिक्षा हो, विनिर्माण व आधारभूत संरचना या सामरिक व्यवस्था; हमारी सभी सरकारों ने अफगानिस्तान की स्थिरता और विकास अपनी प्राथमिकता में रखा।

लेकिन अभी कुछ महीनों पहले एक ऐसी घटना हुई, जिससे लगा कि भारत की पूरी योजना और निवेश पर पानी फिर जायेगा। फिलहाल वो टल चुका है और उसके अभी पुनः होने के कोई आसार भी नहीं हैं। वह घटना थी अफ़गान शांति समझौता। जिसके तहत 18 साल से चले आ रहे युद्ध को खत्म करने और अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए अमेरिका तालिबान के साथ शांति समझौता करना चाहता था, जिसमें एक शर्त यह भी थी कि तालिबानियों को फिर से अफगानिस्तान की सत्ता सौंप दी जाएगी। अगर ऐसा होता तो सबसे ज़्यादा फायदा पाकिस्तान और नुकसान भारत को होता, क्योंकि लैंड लॉक्ड होने के कारण आज अफगानिस्तान सबसे ज़्यादा पाकिस्तान पर ही निर्भर है और तालिबान के आतंकवादियों का पनाहगाह भी। दूसरी ओर भारत को इस डील से अनेकों चुनौतियां होती, क्योंकि भारत ने आतंकवाद को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस नीति अपनाई हुई है, अगर ऐसे में आतंकवादी देश की आधिकारिक सत्ता चलाएंगे तो भारत निवेश, व्यापार और संबंध किस्से बनाएगा। इसके अलावा भारत ने वहां लोकतंत्र स्थिर रहे इसके लिए संसद तक बनाया है, वहां की नेशनल ग्रिड को स्थापित करने, पुस्तकालय का निर्माण करने में भी भारत ने बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है वो है भारत का मध्य एशिया से जुड़ाव, जिसके लिए भारत ईरान एवं अफगानिस्तान पर ही निर्भर है। चूंकि ईरान पर प्रतिबंध लगे हैं ऐसे में सारा दारोमदार अफगानिस्तान पर आकर ठहर जाता है। बड़े स्तर पर सड़कों और रेलमार्गों का निर्माण करके भारत न सिर्फ अफगानिस्तान का विकास करेगा बल्कि सीधे तौर पर खुद मध्य एशिया से जुड़ जायेगा।

इसी बीच एक अप्रत्याशित मोड़ आया। पहले मॉस्को, फिर दोहा में चल रहे कई स्तर की वार्ता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अचानक से ट्विटर पर 4 शब्द लिखकर पूरी दुनियां को चौंका दिया। वह शब्द थे –  अफ़गान पीस डील इज डेड। बाद में यह भी पता चला कि अपने कैबिनेट के कई मंत्रियों तक को यह बात उन्होंने ना बताके सीधे दुनियां को ही बता दिया। मैं समझता हूं कि यह निर्णय उनके लिए बहुत ही मुश्किल रहा होगा, क्योंकि इस डील को कामयाब करने में पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका थी इसलिए पाकिस्तान को खुश करने के लिए उन्होंने कई बार कश्मीर पर मध्यस्थता की भी बात की ताकि पाकिस्तान को अपने पाले में लाया जा सके। अगर यह डील हो जाता और अमेरिकी सैनिकों की वापसी हो जाती तो यह ट्रंप के राजनीतिक करियर के लिए मील का पत्थर साबित होता, लेकिन अन्ततः यह शांति समझौता नहीं हुआ और इस तरह भारत की चिंता भी फिलहाल के लिए दूर हो गई। लेकिन एक चिंता और है जिसने भारत को परेशान करके रखा है और जिसके लिए भारत ने इतने सालों बाद अफगानिस्तान के साथ यह प्रत्यर्पण संधि की है।

आप उस चिंता को समझें इससे पहले आपको यह जानना चाहिए कि प्रत्यर्पण संधि क्या है और यह दो देशों के बीच किस आधार पर लागू होता है। सीधे शब्दों में कहें तो  प्रत्यर्पण संधि का अर्थ है कि जब कोई अपराधी या आरोपी भारतीय हो या अन्य कोई नागरिक भारत में आकर किसी प्रकार का अपराध करके दूसरे देश में भाग जाता हो, या किसी दूसरे देश में बैठकर देश के ख़िलाफ़ अपराध कारित का प्रयास करे, तो पीड़ित देश ऐसी संधियों के द्वारा संबंधित देश से उस व्यक्ति को अपने देश की न्याय प्रक्रिया के अन्तर्गत लाने के लिए उसे प्रत्यर्पित कर लेता है। हमारे भारत में एक कानून के तहत इसे लागू किया जाता है जो कि भारतीय प्रत्यर्पण अधिनियम 1962 की धारा 3(4) में निहित हैं। भारत ने अब तक 43 देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि की है जिसमें सबसे पहली संधि स्विट्जरलैंड के साथ 1880 में, चिली के साथ 1897 में,  नीदरलैंड के साथ 1898 में, बेल्जियम के साथ 1901 में की थी और आखिरी देशों के रूप के थाईलैंड, अजेरबैजान, बांग्लादेश के साथ 2013 में, इंडोनेशिया, वियतनाम के साथ 2011 में की थी। इस सूची में इसके अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, रूस, जर्मनी, बहरीन, बेलारूस, भूटान, ब्राज़ील, बुल्गारिया, कनाडा, इजिप्ट, हांग कांग, ईरान, कुवैत, मलेशिया, मॉरिशस, मैक्सिको, मंगोलिया, नेपाल, ओमान, पोलैंड, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, सऊदी अरब, ताजिकिस्तान, तुर्की, उज़्बेकिस्तान, ट्यूनीशिया, यूक्रेन, संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं। अफगानिस्तान के साथ यह भारत की 44 प्रत्यर्पण संधि है, लेकिन इसके अलावा एक और संधि भी है जिसे 11 अन्य देशों के साथ हस्ताक्षरित किया गया है। इसे प्रत्यर्पण व्यवस्था कहते हैं, जिसके अन्तर्गत कुछ चुनिंदा अपराधों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई है जैसे नारकोटिक ड्रग्स का गैरकानूनी क्रय- विक्रय, समुद्री सुरक्षा, मानव व्यापार इत्यादि। इस व्यवस्था में सबसे पहला समझौता 1963 में स्वीडन के साथ किया गया था तत्पश्चात तंजानिया, सिंगापुर, श्रीलंका, पापुआ न्यू गिनी, फ़िजी, एंटीगुआ एवं बरबुडा, इटली, क्रोएशिया, पेरू एवं अंतिम देश के रूप में 2019 में आर्मेनिया के साथ ये समझौता किया गया था।

भारत के लिए जो चिंता की बात है वह यह है कि इंडियन मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिद्दीन, दुख्तरान-ए-मिल्लत, जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट, ऑल पार्टीज हुरियत कॉन्फ्रेंस, तालिबान, तालिबानी पाकिस्तान जैसे बहुत सारे उग्रवादी और आतंकवादी समूह जो कि कश्मीर और अफगानिस्तान को अव्यवस्थित करने के लिए सक्रिय हैं। जो एलओसी और दुरंड रेखा के रास्ते भारत और अफगानिस्तान में प्रवेश करके आतंकी घटनाओं को अंजाम देते हैं, लेकिन मुख्य रूप से इन घटनाओं को करने की प्लानिंग पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बैठकर की जाती है। ऐसे में यह संधि भारत के लिए बहुत जरूरी थी ताकि इन घटनाओं के होने से पहले या बाद में, जब हमारी खुफिया एजेंसियों को इस बात की जानकारी होगी कि संबंधित व्यक्ति अफगानिस्तान में है या अफगान नागरिक है तो वहां की सरकारों पर दबाव डालकर इस प्रत्यर्पण संधि के द्वारा उस व्यक्ति को अपने देश की न्याय व्यवस्था के अंतर्गत लाना और सज़ा दिलाना आसान होगा। यह संधि पाकिस्तान के लिए निश्चित रूप से एक बहुत बड़ी चुनौती होगी क्योंकि वहीं से इन्हें ऑपरेट किया जाता है या वहां इन्हे ट्रेनिंग मुहैया कराई जाती है। यह बात पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी मानी है कि कई दशकों तक पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने इन्हें ट्रेनिंग व संसाधन मुहैया कराई, क्योंकि वे सब इन्हें आतंकवादी या उग्रवादी नहीं, जिहादी और क्रांतिकारी मानते थे जो इस्लाम की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। बहरहाल, हम देखते हैं कि इस प्रत्यर्पण संधि से भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते और कितने प्रगाढ़ होंगे, क्योंकि आज भी तालिबानियों की विचारधारा के बिना अफगानिस्तान की सरकार नहीं बन सकती, तो किसी का प्रत्यर्पण कितना आसान होगा यह देखने का विषय होगा।

09 दिसम्बर 2019

@Published :

Ambikavani Newspaper, 17 December 2019, Tuesday, #Ambikapur Edition, Page 02.

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