शुरूआत कहाँ से करें! 20 वीं शताब्दी में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे ताकतवर राष्ट्र रहे अमेरिका की या वर्तमान में 2016 के बाद से असहाय हो रहे अमेरिकी नीति से। आज दुनियाँ का कोई भी बड़ा या उभरता देश नहीं बचा जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल में सहजता से रहने दिया हो। शुरूआत अपने ही सहयोगी व खाड़ी देशों के समूह वाले सऊदी अरब से की जहाँ दुनियाँ का पुरा झगड़ा है, वो है गैस एवं तेल।”अगर हमने अपनी सेना हटा ली तो सऊदी साम्राज्य 2 सप्ताह भी नहीं टिक पायेगा”, इतना कहकर भुचाल लाने के बाद ट्रम्प ने राष्ट्रपति के रूप में पहली विदेशी यात्रा भी सऊदी अरब में की और वहाँ जाकर लगभग $350 बिलियन यानी 21 लाख करोड़ रुपए का डील कर लिया, जिसमें $110 बिलियन सिर्फ हथियारों का सौदा था। इस यात्रा और डील के बाद ही दुनियाभर के विश्लेषक समझ गए थे, कि डोनाल्ड ट्रंप इसी तरह दुनियां को डराकर अपने अमेरिका को “ग्रेट अमेरिका – मेक अगेन” बनाएंगे। उन्होंने तत्काल बाद खाड़ी देशों में हुई कतर समस्या पर भी कुछ नहीं किया ताकि बढ़ती तेल की मांग को वो अपने शेल ऑयल से पूरा कर सकें, और तो और बाद में कतर को ही हथियार बेच दिया।
फिर शुरूआत की वेनेजुएला, ईरान और उत्तर कोरिया को घुटनों के बल लाने की। आज तीनों ही देशों की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है पहला, एक चुने हुए राष्ट्रपति को मान्यता नहीं दी दसरा, इतिहास में पहली बार किसी संप्रभु राष्ट्र की सेना को आतंकवादी घोषित कर दिया, तीसरा, रॉकेटमैन व पागल कहकर टेबल पर रखे रिमोट से देश को खत्म कर देने की धमकी देकर सभी को डराया पर आजतक अमेरिका या फिर कहें राष्ट्रपति ट्रम्प, किसी को भी झुका नहीं पाये। मुझे लगता है किम जोंग-उन द्वारा गुआम द्वीप को परमाणु मिसाईल से खत्म कर दिये जाने की धमकी ने संभवतः डोनाल्ड ट्रंप को सबसे ज्यादा असहज किया होगा। बात सहयोगी देशों की करें तो 29 देशों का सर्वाधिक शक्तिशाली सैन्य समूह नाटो आजतक के इतिहास में अपने सबसे कमजोर दौर में चल रहा है, सभी 28 देशों को अपने जीडीपी का 2% नाटो की रक्षा पर खर्च करने का कहकर राष्ट्रपति ट्रम्प के फेंके हुये पासे ने उन्हें ही घेर लिया है क्योंकि 1949 से लेकर अबतक अमेरिका इनकी सुरक्षा पर $6.85 ट्रिलियन यानी 510 लाख करोड़ रुपए या इसे आप इस तरह समझिए कि अभी भारत की अर्थ्यवस्था $2.8 ट्रिलियन यानी 200 लाख करोड़ रुपए है मतलब लगभग 3 भारतीय अर्थव्यवस्था के बराबर पैसा अमेरिका सुरक्षा पर खर्च कर चुका है, इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप अब इन सभी पर दबाव बना रहे हैं। लेकिन यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये संगठन मुख्य रूप से रूस को काउंटर करने के लिए बनाया गया था लेकिन आज तो कई नाटो देश रूस की ही गैस सप्लाई पर ही निर्भर है, पोलैंड और जर्मनी तक भी।
अब तो सबसे करीबी सहयोगी देशों जापान और दक्षिण कोरिया को भी ट्रम्प ने नहीं छोड़ा। इन दोनों देशों में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती और न्यूक्लियर अंब्रेला के लिए ज्यादा पैसों मांगकर ट्रंप ने इन दोनों को भी असहज कर दिया है, अंततः दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया का खतरा देखते हुये ट्रम्प की मांग मानकर $850 मिलियन की जगह अब $990 मिलियन हर साल अमेरिका को चुकाने का वादा किया है। लेकिन एक और समस्या की वजह से ट्रम्प की नीति बुरे स्थिति में आ गई है, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापनीज इंपीरियल आर्मी द्वारा किए गए कोरियन नरसंहार के कारण हाल ही में जापान-दक्षिण कोरिया जैसे समृद्ध देश अपने पुराने विवाद में बहुत आगे बढ़ चुके है इसलिए दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून-जे-इन ने उत्तर कोरिया का खतरा बढ़ने, ट्रम्प द्वारा ब्लैकमेल करने और जापान से विवाद बढ़ने की वजह से अमेरिका-कोरिया-जापान के बीच हुये त्रिपक्षीय जीएसओएमआईए समझौते से बाहर आने का एलान किया कर दिया है। जिसके तहत इन देशों के बीच मिलिट्री सूचनाओं का आदान प्रदान होता था।
बात भारत जैसे सहयोगी की करें तो हमने भी अमेरिका की इन 4 फाउंडेशन एग्रीमेंट्स में से 3 यानी जीएसओएमआईए (जर्नल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इनफॉरमेशन एग्रीमेंट), लेमोआ (लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट) व कॉमकासा (कम्युनिकेशन कम्पाबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट) पहले ही साइन कर लिया है और अंतिम बेका (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट भी जल्द ही कर लिए जाने की उम्मीद है। लेकिन ट्रम्प ने अपनी अमेरिका फर्स्ट नीति के आगे नरेंद्र मोदी की मेक इन इंडिया को भी नहीं छोड़ा। हार्ले डेविडसन से शुरुआत करते हुए, मांसाहारी डेयरी प्रोडक्टस को भारत में लाने का दबाव बनाने से लेकर जीएसपी से बाहर करने तक ट्रम्प ने जोरदार पासा फेंका और उसमें थोड़ा कामयाब भी हुए। साथ ही मसूद अजहर को सुरक्षा परिषद में चीन के तकनीकी रोक पर लगाम लगाने के बदले ईरान से पूरी तरह तेल बंद करवाना भी उनकी एक कामयाब कूटनीति रही। लेकिन 70 सालों की नीति के आगे ट्रम्प के 03 साल की हकीकत झूठ बनकर रह गई। बेशक भारत के लिए अमेरिका आवश्यक है लेकिन अमेरिका ही आवश्यक नहीं, यह भारत ने साबित कर दिखाया है। चाहे वो काट्सा कानून (काउंटरिंग अमेरिका एडवर्सरीज श्रू सैंक्शन एक्ट) की परवाह किए बिना रूस से एस-400 ट्रायंफ एंटी बैलेस्टिक मिसाईल खरीदना हो, ईरान पर पूर्ण प्रतिबंध के बाद भी चाबहार बंदरगाह को उसके बाहर रखना हो, इंडो-पैसिफिक रीज़न में अपनी क्षमता साबित करना हो, मिशन शक्ति के अन्तर्गत ए-सेट का परीक्षण करना हो जम्मू कश्मीर की भौगोलिक व्यवस्था बदलना या अमेरिका में जाकर, उन्ही के बीच उनके वोटर्स को हैक करके उन्हें जीताने के लिए कहना, इन सबमें अमेरिका कहीं भी कुछ नहीं कर पाया। इससे दो वस्तुस्थिति स्पष्ट हुई है कि आज का नया भारत झुककर नहीं चलेगा दुसरा, ट्रम्प की नीति अनेकों मोर्चों पर विफल रही।अपनी नीति की वजह से उन्होंने नाफ्टा को खत्म करके कनाडा और मैक्सिको जैसे सहयोगियों को ब्लैकमेल करते हुए यूएसएमसीए बनवा लिया, दुनियाँभर के लिए स्टील और एल्यूमीनियम पर टैरिफ बढ़ा दिया, जी-7 जैसे परिपक्व और विकसित समूह की समिट में कनाडा और जर्मनी को नाराज करते हुए आधी मीटिंग से वापस लौट आये, इसी का परिणाम रहा कि इटली जैसा विकसित नाटो और जी-7 समूह का देश चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना में शामिल हो गया। अब वे पूरा ध्यान चीन पर लगाए हुए हैं और उससे व्यापार युद्ध छेड़ते हुये उनके उत्पादों पर अब तक $250 बिलियन का टैरिफ लगा चुके हैं साथ ही उन्होंने 1 सितंबर से 300 बिलियन के उत्पादों पर और 10% टैरिफ लगाने का ऐलान किया था लेकिन व्यापार डील का पहला चरण पूरा होने की वजह से फिलहाल इसे रोक दिया।
अब इन सब का जो सार है वह ट्रंप की विदेश नीति को पूरी तरह एक्सपोज कर देगा। ट्रम्प अपनी हताशा में वैश्विक संस्थानों और समूहों की भी परवाह नहीं करते आये हैं। 3 सालों में उनके कई मंत्रियों और उच्च अधिकरियों ने उनका साथ छोड़ दिया। और अब तो वो खुद यूक्रेन के राष्ट्रपति को धमकी तथा पूर्व अमेरिकी उपराष्ट्रपति को फंसाने तथा 2016 के चुनाव में रूसी दखल के कारण महाभियोग की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। इसके अलावा चीन, ईरान एवं उत्तर कोरिया इन तीनों ने धैर्य से काम लिया भले ही इनकी अर्थव्यवस्था थोड़ी पस्त हो गई क्योंकि उन्हें लगता है कि ट्रंप सिर्फ 2020 तक के ही मेहमान हैं। वैसे ये सब राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसलिए किया ताकि वे सबको अपने सामने बातचीत की टेबल पर ला सकें। चाहे वो परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए हसन रुहानी और किम-जोंग-उन हो, व्यापार डील के लिए शी जिनपिंग या फिर अफगानिस्तान से सैनिकों की सुरक्षित वापसी के लिए पाकिस्तान को गले ही क्यों न लगाना पड़े। इसके अलावा तुर्की, रूस, सीरिया को भी डोनाल्ड ट्रंप झुका नहीं पाए, और इन सभी चीज़ों ने उनके 2020 चुनाव जीतने के सपने को तोड़कर रख दिया है। अब तो अमेरिकी न्यूजपेपर्स भी कुर्दिशों की सहायता नहीं करने के कारण ये कहने लगे हैं कि भविष्य में कोई भी देश अमेरिका पर भरोसा नहीं करेगा क्योंकि अमेरिका अपना फायदा निकालकर फिर से उन्हें मरने छोड देता है।
सिर्फ इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र माइग्रेट रिफ्यूजी पैक्ट, ट्रांस-पेसिफिक पार्टनरशिप, परिस क्लाइमेट चेंज एग्रीमेंट, यूनेस्को, ईरान न्यूक्लियर डील, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्स संधि, संयुक्त राष्ट्र आर्म्स ट्रीटी जैसे संस्थानों व समूहों से भी बाहर निकलकर अमेरिका ने दुनियाँ में अपना वर्चस्व और नेतृत्व कम कर लिया है। ट्रंप के बारे में कहा जाता है कि वे किस समय कौन सा डिसीजन लेंगे यह कोई भी नहीं जानता, उनकी कैबिनेट भी नहीं। क्योंकि उन्हें बताने से पहले ही वे ट्विटर पर सारी बात बता चुके होते हैं और दूसरी बात यह है कि इसी बड़बोलेपन में वह कई बार राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े तथ्य भी ट्विटर पर उगल देते हैं ईरान पर सैन्य हमला करने से मात्र 10 मिनट पहले कार्यवाही को रोकने की जानकारी ट्विटर पर देना इसका प्रमुख उदाहरण था। हालांकि यह भी सच है और इस बात के लिए निश्चित ही राष्ट्रपति ट्रंप की प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है और अमेरिका को फिर से महान बनाने के अपने नारे को सभी नागरिकों तक पहुंचा दिया है इसी का परिणाम है कि आज अमेरिका में रोजगार अपने इतिहास में सबसे उच्चतम स्तर पर है। बहरहाल वैश्विक परिदृश्य में विदेश नीति कैसी करवट लेगी, इस पर हमारा ध्यान ज़रूर बना रहेगा।
22 अक्टूबर 2019
@Published : Ambikavani Newspaper, 22 October 2019, Tuesday, Ambikapur Edition, Page 02
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