आज के दौर का इंटरनेट यानी वह तंत्र, जिससे सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि सेना, स्पेस, ख़ुफ़िया एजेंसी, पॉवर ग्रिड, अर्थव्यवस्था और अफवाहों के द्वारा किसी भी देश को बर्बाद किया जा सकता है। उदाहरणस्वरुप अमेरिका द्वारा ईरान पर किया गया साइबर अटैक ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। लेकिन हाल ही में भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कश्मीर में इंटरनेट बहाली के आदेश दिए हैं साथ ही सख्त चेतावनी देते हुए कहा है कि भविष्य में इंटरनेट पर नहीं लगायी जा सकेगी। यदि बहुत ही गंभीर परिस्थितियों में इंटरनेट इस्तेमाल पर रोक लगाना भी पड़े तो सरकार को यह बताना होगा कि किन शर्तों के आधार पर उसने ये पाबंदी लगायी, ताकि जनता चाहे तो उसपर सुनवाई के लिए याचिका प्रस्तुत कर सके। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट के उपयोग को मौलिक अधिकार घोषित कर दिया और इसे संविधान की अनुच्छेद 19ब का हिस्सा बना दिया।
लेकिन कुछ और भी परिस्थितियां हैं जो सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इन चीजों को कुछ बाध्यकारी कानूनों व संधियों के द्वारा इसे घटा और बढ़ा रही है। जिसमें इंटरनेट से होने वाले अपराधों को रोकने के लिए विश्वस्तरीय बनाए जा रहे मैकेनिज्म से इसे घरेलू कानूनों के तहत तो ना सही लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानूनों की दुहाई और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बताकर इंटरनेट पर पुनः पाबंदी लगाना संभव हो जाएगा। पता नहीं, दो मोर्चों पर बनाई जा रही व्यवस्था इंटरनेट के द्वारा होने वाले अपराधों को रोकने में कितना कारगर होगी।
हाल के पिछले महीनों में विश्वस्तर पर कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं भी हुई हैं जिसने इसकी स्वायत्तता और खतरा दोनों को ही बढ़ा दिया दिया है। पहला यह है कि रूस अब खुद का इंटरनेट ला रहा है, जिसके तहत अमेरिकी प्रभाव वाले इंटरनेट पर अपनी निर्भरता को कम करने और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को संयोजित किया जा सके। रूस का यह डर साइबर अटैक की उस घटना के कारण है, जिसमें उसे शक है कि उसके रक्षा तकनीक और ग्रिड सिस्टम पर हमला अमेरिका ने ही अपने इंटरनेट वर्चस्व वाली कंपनियों का इस्तेमाल करके किया था। इसलिए वह अब खुद का इंटरनेट लाकर अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को अभेद करेगा। इसके अलावा दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना चीन को लेकर है जिसने पिछले महीने व्यापार युद्ध के बीच पिछले महीने ही यह संकल्प किया है कि वो 2022 तक देश से सभी विदेशी कंप्यूटर्स, सॉफ्टवेयर्स को देशी उपकरणों से बदल देगा। यह प्लान चीन ने इसी साल से प्रारंभ कर दी है जिसका कोडनेम है 3-5-2, यानी चीन कि 30% विदेशी हार्डवेयर्स 2020 में रिप्लेस किए जाएंगे, 50% को 2021 में और बचे हुए 20% को 2022 में। रूस और चीन दोनों ने जो निर्णय लिए हैं वह साइबर अटैक के खतरे और अमेरिका से अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिया है।
लेकिन इन सबके बीच में चर्चा एक बहुत बड़े संधि की भी हो रही है, जिसके तहत बुडापेस्ट कन्वेंशन का विकल्प तलाशा जा रहा है और जिसे हाल ही में रूस ने विभिन्न देशों के सहयोग से कॉम्बैट द यूज़ ऑफ इनफार्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी फॉर क्रिमिनल पर्पासेज नाम का एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासभा में रखा, जिसे महासभा की तीसरी समिति ने 29 दिसंबर 2019 को विपक्ष की 60 वोट कि जगह पक्ष में पड़े 79 मत से प्रस्ताव को पास कर दिया। 33 अन्य देशों ने तटस्थ रहते हुए इस प्रस्ताव में भाग ही नहीं लिया। इस प्रस्ताव के कानून बन जाने के बाद संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले दुनियाभर में साइबर क्राइम से होने वाले अपराधों को रोकने का मैकेनिज्म बनाया जाएगा, जो बुडापेस्ट कन्वेंशन की तरह साथ साथ कार्य करेगी। रूस के प्रस्ताव पर आगे बढ़े उससे पहले यह कि यह बुडापेस्ट कन्वेंशन है क्या? बुडापेस्ट कन्वेंशन एक संधि है जिसका अधिकारिक नाम बुडापेस्ट कन्वेंशन ऑन साइबर क्राइम है। यह साइबर क्राइम को रोकने के लिए विश्व की पहली संधि है जिसमें यह प्रावधान है की संबंधित सदस्य अपने देशों में एक समान कानून बनाए ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साइबर क्राइम को रोका जा सके। इसकी शुरुआत तब से की गई, जब साइबर क्राइम इस दुनिया में होना प्रारंभ हुआ। इसकी पहल काउंसिल ऑफ यूरोप के देशों ने फ्रांस के स्ट्रेसबर्ग शहर में एक मीटिंग आयोजित करके की थी लेकिन बाद में इसमें कनाडा, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, साउथ अफ्रीका भी शामिल हो गए और 2001 में इन्होंने इस संधि का मसौदा तैयार कर लिया। तत्पश्चात उसी साल 8 नवंबर 2001 को 109 वीं काउंसिल ऑफ यूरोप के मंत्रियों की मीटिंग में इस मसौदे को अडॉप्ट कर लिया गया जिसके बाद 23 नवंबर से हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में इस पर हस्ताक्षर की शुरुआत हुई और 1 जुलाई 2004 से यह संधि प्रभाव में आ गया। चूंकि 2001 में भारत इंटरनेट के मामले में इतना सक्षम नहीं था ना ही अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत थी। उस समय साइबर हमले भी हमारे यहां बहुत कम थे, इसलिए ना ही कभी इसके सदस्य देशों ने भारत को किसी मीटिंग में आए आमंत्रित किया और ना ही भारत ने इसकी मीटिंग में जाना उचित समझा।
फिलहाल इस बुडापेस्ट कन्वेंशन की चर्चा अभी इसलिए हो रही है क्योंकि 20-22 नवंबर 2019 नई दिल्ली में आयोजित इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन साइबर लॉ, साइबर क्राइम, साइबर सिक्योरिटी में उस बुडापेस्ट कन्वेंशन के सदस्य देशों द्वारा भारत को कन्वेंशन में शामिल होने का दबाव बनाया जा रहा है। यह हमें यह भी जान लेना चाहिए कि 2015 से लगातार यह इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस भारत ही प्रायोजित करता है जिसमें विश्व भर के प्रतिनिधि और एक्सपर्ट्स सम्मिलित होते हैं। लेकिन भारत ने यह कहकर अपने आप को इस समझौते से अलग रखा है कि हमने कभी भी इसके नेगोशिएशन में भाग नहीं लिया इसलिए यह समझौता हमारे अनुकूल नहीं है। भारत की दूसरी सबसे बड़ी चिंता इस कन्वेंशन का आर्टिकल 32ब है जिसके तहत संबंधित सदस्य देशों का डाटा वैश्वीकरण हो जाएगा यानी हम कौन सा मैकेनिज्म और तकनीक इस्तेमाल करके अपराध को रोक रहे हैं यह हैकर्स तो नहीं लेकिन संबंधित सदस्य देश जानकर इसका दुरुपयोग कर सकते हैं जिससे हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता को खतरा होगा। भारत की तीसरी चिंता इस बात को लेकर है कि यह कन्वेंशन बाध्यकारी नहीं है, यानी हम पर कभी हैकर्स का हमला हो रहा होगा तो इसके सदस्य देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर भारत को सहयोग देने से मना भी कर सकते हैं इसलिए भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हालांकि भारत अकेला नहीं है रूस चीन पाकिस्तान ब्राजील मेक्सिको जैसे बड़े देशों ने भी खुद को इस संधि से अलग रखा है और फिलहाल 64 देशों ने रेटिफाइड करके अपने यहां लागू किया है।
अब हम वापस रूस के उस प्रस्ताव की ओर चलते हैं, जिसमें रूस ने सभी देशों को यह आश्वासन दिया है कि उसमें बुडापेस्ट संधि के उन प्रावधानों को शामिल नहीं किया जाएगा जिससे किसी भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को खतरा हो। भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान दिया है और बढ़ चढ़कर इसके नेगोशिएशन में हिस्सा ले रहा है, साथ ही अगस्त 2020 में न्यूयॉर्क में एक संधि स्थापित करने के उद्देश्य से सभी देश एक मीटिंग करने को भी राजी हो गए हैं जिसमें यह प्रावधान भी शामिल होगा कि साइबर क्राइम को रोकने के लिए अगर सदस्य देश चाहें तो कोआर्डिनेशन और डाटा शेयर कर सकते हैं। लेकिन अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और ह्यूमन राइट्स संगठन, रूस के इस प्रस्ताव को गलत बता रहे हैं। अमेरिका इस बात को लेकर चिंतित है कि रूस इसमें जो ड्राफ्ट बनाएगा उसमें यह प्रावधान भी हो सकता है, जिसमें खतरा होने की स्थिति में सुरक्षा के नाम पर पूरे देश में इंटरनेट को बंद किया जा सकेगा या किसी वेबसाइट को खतरनाक बताकर उसे ब्लॉक्स कर दिया जाएगा। इस प्रस्ताव का सबसे ज्यादा विरोध फिनलैंड ने किया जिसने पूरे यूरोपियन यूनियन का नेतृत्व करते हुए सभी सदस्य देशों से इस प्रस्ताव को खारिज करने की अपील की थी। ह्यूमन राइट्स संगठनों का कहना है कि इससे देशों को इंटरनेट पर सेंसरशिप लागू करने की ज्यादा शक्ति मिल जाएगी। लेकिन फिलहाल भारत ने अपना रास्ता चुन लिया है और वह उस पर आगे बढ़ रहा है। लेकिन यह भी निश्चित है कि इन सब के बीच में सबसे ज्यादा फायदा हैकर्स को ही होगा, क्योंकि एक तरफ बुडापेस्ट कन्वेंशन और दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित संधि के बीच के लूप होल का फायदा उठाते हुए वे अपने कार्य को आसानी से अंजाम दे पाएंगे क्योंकि दुनिया साइबर सिक्योरिटी को लेकर फिर से दो ध्रुवों में बंटी होगी।
31 जनवरी 2020
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