पिछले तीन दशकों में, दुनिया ने वैश्विक शक्ति संतुलन में एक नाटकीय बदलाव देखा है। सबसे पहले सोवियत संघ का बिखराव, फिर अमेरिकी प्रभुत्व के पतन और चीन-भारत जैसे नए भू-राजनीतिक खिलाड़ियों के उदय के साथ, भारत की विदेश नीति गुटनिरपेक्ष रुख से धीरे-धीरे एक अधिक मुखर और स्वतंत्र वैश्विक उपस्थिति की ओर विकसित हुई है। यह परिवर्तन न केवल भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत का प्रतिबिंब है, बल्कि वैश्विक मामलों में अमेरिकी प्रभुत्व को संतुलित करने के लिए बनाई गई एक सुविचारित रणनीति भी है। अपनी विशाल जनसंख्या, समृद्ध अर्थव्यवस्था और रणनीतिक स्थिति के साथ, भारत लंबे समय से एक क्षेत्रीय महाशक्ति रहा है। हालाँकि, वैश्विक व्यवस्था को नया रूप देने की उसकी कोशिश, खासकर हाल की विदेश नीति के घटनाक्रमों के संदर्भ में, नई गति पकड़ रही है। चीन और रूस के साथ संबंधों को मज़बूत करने से लेकर ग्लोबल साउथ के प्रमुख देशों को लुभाने तक, भारत का बदलता रुख अमेरिकी वर्चस्व के लिए एक सूक्ष्म लेकिन स्पष्ट चुनौती पेश करता है।
सोवियत संघ के पतन के बाद, अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति रह गया। इसी की वजह से 1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में अमेरिका ने आर्थिक नीतियों से लेकर सैन्य हस्तक्षेप तक, वैश्विक व्यवस्था की शर्तों को तय किया, जिसकी सैन्य उपस्थिति महाद्वीपों तक फैली हुई थी और अंतर्राष्ट्रीय वित्त पर उसकी पकड़ अटूट थी। हालाँकि, पिछले दशक की घटनाओं ने इस एकध्रुवीय दौर के विघटन का संकेत दिया है। सामूहिक विनाश के हथियार के नाम पर इराक में और आतंकवाद के नाम पर अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के युद्ध, 2008 में उसका आर्थिक पतन, ब्रिक्स गठबंधन का निर्माण, वैश्विक व्यापार एवं हाइपरसोनिक मिसाइल प्रौद्योगिकी में हाल की पराजय ने एक सर्वशक्तिमान शक्ति के रूप में अमेरिकी छवि को बहुत धूमिल किया है।
बहरहाल, भारत पर ट्रंप की 50% टैरिफ का विशेषज्ञ अनेकों मतलब निकाल रहे हैं, जिसमें सबसे प्रमुख रूस से क्रूड ऑयल खरीद है। लेकिन मैं समझता हूँ, कि इस टैरिफ का असली मकसद भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का डर है, जिसकी वजह से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कदम उठाया है। यह डर हाल ही के वर्षों में बहुत तेजी से उभरकर आया है, जिसमें सबसे पहले तो भारत ने राष्ट्रपति जो बाइडेन के शासनकाल में अमेरिकी और यूरोपियन यूनियन के भारी दबाव के बाद भी न सिर्फ रूस से क्रूड ऑयल खरीदना जारी रखा, बल्कि आयात कई गुना बढ़ा भी दिया। यद्यपि, पिछले कुछ वर्षों में भारत ने सस्ते रूसी तेल से अरबों डॉलर बचाए हैं लेकिन आम उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोल सस्ता नहीं हुआ है।
अब राष्ट्रपति ट्रंप के भारी दबाव के बाद भी भारत ने अपने कृषि और डेयरी सेक्टर को अमेरिका बाजार के लिए नहीं खोला, साथ ही भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भी भारत ने न तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को कोई क्रेडिट ही दिया, और न ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेशन, और तो और एफ-35 लड़ाकू विमानों की खरीदी को भी साफ तौर पर ठुकरा दिया, जिसे प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप और भारत की यात्रा के दौरान उपराष्ट्रपति जेडी वेंस दोनों ने ही इसे प्रमोट किया था। बस यही वो कारण हैं जिसकी वजह से राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रशंसकों के बीच खुद की छवि बचाने के लिए भारत जैसे रणनीतिक साझेदार पर एकतरफा और गैरजिम्मेदार कार्रवाई की है, और चीन को रियायत देने में लगे हैं। जबकि पूरी दुनिया जानती है कि रूसी क्रूड ऑयल का सबसे बड़ा खरीददार भारत नहीं, चीन है; और प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा खरीददार है यूरोपियन यूनियन, जो कि सैकड़ों बिलियन डॉलर की खरीददारी कर रूस के युद्ध को पोषित कर रहे हैं। अब तो जापान जैसे जी-7 देश ने भी सालों बाद रूस से क्रूड ऑयल खरीदना शुरू कर दिया है।
राष्ट्रपति ट्रंप यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उन्होंने अमेरिका और भारत के रिश्तों को किस हद तक चोट पहुंचाई है। पहले ही ज्यादातर भारतीयों के मन में अमेरिका की सच्ची दोस्ती को लेकर संशय बना हुआ था, और अब इस शुद्ध पूंजीवादी अमेरिकी धोखे को भारतीय लंबे समय तक अमेरिका को आधा दुश्मन-आधा दोस्त के रूप में देखेंगे। वैसे ट्रंप इस मुख्य वजह के पीछे ज्यादा समय तक छुप नहीं सकेंगे, कि कैसे अमेरिका के सुहाने सपनों ने एक विकसित और खुशहाल राष्ट्र को तबाह कर दिया। अमेरिकी उकसावे में यूक्रेन को न सिर्फ हजारों किलोमीटर जमीन गंवानी पड़ रही है, बल्कि हजारों सैनिकों ने अपनी जान और लाखों नागरिकों को विस्थापन सहना पड़ा है। आने वाले दशकों में यही वो कुछ वजह होंगी, जो अमेरिकी पतन का कारण बनेंगी। देखा जाये, तो ट्रंप ने इसी बहाने भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता साबित करने का एक बहुत अच्छा अवसर दिया है जो कि भारत हमेशा से करना चाहता रहा है। भारत की बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षाएँ अमेरिका के साथ प्रत्यक्ष टकराव के बारे में नहीं हैं, बल्कि उन सिद्धांतों को चुनौती देने के बारे में हैं जिन्होंने अमेरिकी वर्चस्व को परिभाषित किया है, एवं बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने पर आधारित है। यह बहुध्रुवीयता केवल एक सैद्धांतिक अवधारणा नहीं है; यह एक वास्तविकता है जिसे भारत आकार देने के लिए काम कर रहा है, और यही उसकी रणनीतिक स्वायत्तता को भी पूरा करेगा। साथ ही यह ग्लोबल साउथ के लिए भी भरोसेमंद साथी और बहुध्रुवीयता सिद्धांत का प्रेरणास्त्रोत बनेगा।
भारत की विदेश नीति में सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक रूस और चीन के साथ उसके संबंधों का मज़बूत होना रहा है। यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस को अलग-थलग करने के बढ़ते अमेरिकी दबाव के बावजूद, भारत ने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण बनाए रखा है और राष्ट्रीय हितों को आगे रखकर रूसी तेल और सैन्य उपकरण खरीदना जारी रखा है। चीन के साथ अपने संबंधों में, भारत ने एक सूक्ष्म रणनीति अपनाई है। चल रहे सीमा विवादों और तनावों के बावजूद, भारत वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य में चीन को एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में मान्यता देता है। दोनों देशों के साझा आर्थिक हित हैं, खासकर व्यापार, बुनियादी ढाँचे के विकास और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में।
जी-20, ब्रिक्स और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे वैश्विक शासन मंचों में भारत की बढ़ती भागीदारी ने अंतर्राष्ट्रीय निर्णय लेने में इसके प्रभाव को बढ़ाया है। ब्रिक्स गठबंधन, विशेष रूप से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी पश्चिमी-प्रभुत्व वाली संस्थाओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतिपक्ष बन गया है। ब्रिक्स न केवल एक आर्थिक समूह है, बल्कि एक राजनीतिक शक्ति भी है जो वाशिंगटन सहमति को चुनौती देने और वैश्विक शासन के भविष्य के लिए एक वैकल्पिक आख्यान रचने का प्रयास करती है। अंततः देखना होगा कि जो भारत, यह युग युद्ध का नहीं है, कहकर शांति समझौते के केंद्र में है, वह अमेरिकी वर्चस्व का जवाब किस तरह से दे सकेगा।
डॉ. कुमार रमेश उप-कुलसचिव, विदेशी मामलों के जानकार एवं वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर Email: kumar.ramesh0@yahoo.com
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1. #NavPradesh Newspaper, 15 August 2025, Friday, Raipur edition, P. 06 https://www.navpradesh.com/epaper/pdf/633_raipur%2015-8-2025_compressed.pdf