जब से मिडिल ईस्ट में तेल और गैस का भंडार मिला है तब से लेकर आज तक शायद ही कोई दशक रहा हो जब मध्य एशिया और खाड़ी के देशों में स्थिरता रही हो। 1970 के दशक में जब अमेरिका ने यहां के तेल पर एकछत्र राज करने के लिए खाड़ी देशों में सुरक्षा का जिम्मा संभाला, तब से ये स्थितियां और भी भयानक होती गई। चाहे वह अरब वॉर हो, कुवैत या इराक युद्ध हो या वर्तमान का वेनेजुएला हो या ईरान, सबमें अस्थिरता बनी हुई है। इसके अलावा 2011 में अरब स्प्रिंग से निकली चिंगारी में जलने वाला ट्यूनीशिया हो, लीबिया या फिर वर्तमान सीरिया। सबके बीच इन लड़ाईयों का बस एक ही कारण था, वह था पावर स्ट्रगल। उस समय से जो आग यहां लगी हुई है उसी की एक चोट ने नासूर बन कर जन्म लिया जिसका नाम था आईएसआईएस या इस्लामिक स्टेट। जिसने अपने आपको पूरे मध्य एशिया में फैलाने के लिए यहां के तेल भंडारों को अपने कब्जे में करना शुरू किया ताकि हथियारों की खरीदी और लड़ाकों की भर्ती कर सके। तब इसे रोकने के लिए अपने आपको दुनियां का पुलिसमैन कहने वाला अमेरिका आगे आया और इस्लामिक स्टेट के साथ लड़ाई शुरू की लेकिन उस लड़ाई में कभी भी अमेरिकी सैनिकों ने भाग नहीं लिया जबकि यह लड़ाई लड़ अमेरिका ही रहा था। कैसे, तो अब यहां पर एंट्री हुई कुर्दिश लड़ाकों की।
इस घटना को आप जाने, उससे पहले आपको जानना जरूरी है कि यह कुर्दिश कौन है और क्यों ये लड़ाई लड़ रहे हैं। तो इसका कारण है, वह है कुर्दिस्तान। आपको इतिहास में थोड़ा पीछे ले चलता हूं जहां से यह मांग और लड़ाई शुरू हुई थी। बात ऑटोमन साम्राज्य के समय की है जब उसका विस्तार पश्चिम एशिया और पूर्वी यूरोप तक था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय से ही कुर्द समुदाय के लोग अपने लिए अलग देश की मांग कर रहे थे, और तो और उन्होंने इस विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों के लिए लड़ाइयां भी लड़ी। लेकिन जब ऑटोमन साम्राज्य का अंत हुआ तब तुर्की, लेबनान, जॉर्डन, सीरिया, फिलिस्तीन, आर्मीनिया जैसे देश और इराक, ईरान के कुछ भाग इसी से बने, लेकिन कुर्दिस्तान नहीं बना। तब से इसके युवा मिलिशिया यानी लड़ाके बन गए और अपने कुर्दिस्तान के लिए सरकारों पर हमले करके उन्हें अस्थिर करने लगे। यह लड़ाके तुर्की और सीरिया के लगभग तीस प्रतिशत भाग के साथ इराक, ईरान व आर्मेनिया के कुछ हिस्से को मिलाकर कुर्दिस्तान बनाना चाहते हैं।
बात आज की करें तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने देश के नागरिकों से यह वादा किया है कि वह सबसे खराब परिस्थितियों को छोड़कर किसी भी स्थिति में अमेरिकी सैनिकों को विदेशी धरती पर युद्ध के लिए नहीं भेजेंगे, और जहां – जहां भी अमेरिकी सैनिक लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें भी ये वापस ले आएंगे। इसलिए इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों को खत्म करने के लिए अमेरिका ने कुर्दिश लड़ाकू को हथियार व संसाधन मुहैया कराए और बदले में कुर्दिस्तान बनवाने में मदद करने का वादा किया। अंततः जब कुर्दिश लड़ाकों के पास हथियार व संसाधन आ गए तो उन्होंने सिर्फ इस्लामिक स्टेट की जगह अनेक मोर्चों पर यानी तुर्की एवं सीरिया कि आर्मी से भी लड़ाइयां लड़नी प्रारंभ कर दी। अब परिस्थितियां यह है की कुर्दिश लड़ाकों ने न सिर्फ आईएसआईएस की राजधानी राक्का को अपने कब्जे में वापस ले लिया बल्कि 12000 इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों को भी कैद करके रखा है साथ ही साथ एक तिहाई सीरिया भी अपने कब्जे में कर लिया है जिसे वे फिलहाल एक अलग देश ना कह कर सीरिया की ही एक स्वायत्त क्षेत्र रिपब्लिक ऑफ रोजावा कहते हैं।
अब यहीं से आज का पूरा विवाद जारी है। सबको ये बात खटक रही है कि कुर्दिशों को अमेरिका का सहयोग प्राप्त है, और सीरिया को रूस का। फिर भी बशर-अल-असद सरकार के साथ कुर्दिशों की कोई लड़ाई क्यों नहीं हो रही है, जबकि सीरिया की तीस प्रतिशत भूभाग पर इन्होंने कब्जा कर रखा है। इसी बात का सबसे ज्यादा डर तुर्की को था, कि कहीं यह तुर्की के भाग को भी कब्जे में ना ले लें। इसलिए इस्लामिक स्टेट के खत्म होने के बाद जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की घोषणा की, उसके तुरंत बाद तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगोन ने सीरिया के अंदर घुस कर कुर्दिश लड़ाकू के ऊपर हमला करने की चेतावनी दे दी। ताकि वे सीरिया के 40 किलोमीटर अंदर तक एक सेफ जोन का निर्माण कर सकें जिससे सीरिया के कुर्दिश लड़ाके तुर्की के कुर्दिश लड़ाकों को कोई हथियार या संसाधन मुहैया न करा सके। तत्पश्चात आधी रात को ही तुर्की की वायु सेना ने सीरिया के अंदर बम गिराना प्रारंभ कर दिया और 4 दिनों में लगभग 30 किलोमीटर का एरिया अपने कब्जे में लेने के बाद 120 घंटे की युद्ध विराम की घोषणा कर दी। तीन-चार दिनों में इससे लगभग 600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 300000 लोग विस्थापित हो गए हैं।
अब इस सब लड़ाई में एक देश है जिस पर दुनिया भर के देशों का गुस्सा निकल रहा है वह है अमेरिका और उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप। क्योंकि ट्रंप ने इस्लामिक स्टेट से लड़ाई के बदले कुर्दिश लड़ाकों को कुर्दिस्तान के लिए सहयोग देने का वादा किया था, लेकिन जब अमेरिका का मिशन यहां पूरा हो गया तो उसने कुर्दिश लड़ाकों को सहयोग देना बंद करके तुर्की के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया। हालांकि डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट करके कहा था कि अगर तुर्की ने ऐसा दुस्साहस किया तो हम उसकी अर्थव्यवस्था बर्बाद कर देंगे, लेकिन ट्रंप तुर्की के एक्शन के बाद भी कुछ नहीं कर पाए। कुर्दिश लीडर्स ने इसे हमारे लड़ाकों के पीठ में छुरा घोंपना बताया। अंततः 4 दिन तक इस युद्ध के बाद कुर्दिश आर्मी ने सीरिया कि सरकार से गठबंधन कर लिया ताकि वे मिलकर तुर्की की सेना को बाहर खदेड़ सके। इस घटना के बाद पहला स्टेप उठाते हुए फ्रांस ने तुर्की को हथियारों की सप्लाई रोक दी और बाद में ब्रिटेन ने भी ऐसा किया। भारत सरकार ने भी इस कार्रवाई के लिए तुर्की को जिम्मेदार ठहराया और कश्मीर का जवाब देते हुए किसी संप्रभु राष्ट्र के संप्रभुता व अखंडता में दखल देने के लिए अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। तत्पश्चात सभी खाड़ी देशों और यूरोपियन यूनियन ने भी तुर्की को प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी। तब कहीं जाकर तुर्की ने 120 घंटे का सीजफायर ऐलान कर दिया।
जब इतना सब कुछ हो गया तब जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति को लगा कि उनसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। क्योंकि सिर्फ इस्लामिक स्टेट ही नहीं सीरिया की बशर अल असद की सरकार को हटाने के लिए उन्होंने जिन कुर्दिश लड़ाकों को हथियार और संसाधन दिया, उन्होंने अब खुद सीरिया की सरकार के साथ गठबंधन कर लिया है। और अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी रूस अब अप्रत्यक्ष रूप से इसमें मिल जाएगा और अमेरिका के जगह की पूर्ति करेगा। इसी आपाधापी में डोनाल्ड ट्रंप ने तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान को यह सब रोकने के लिए पत्र लिखा, लेकिन एर्दोगान ने उनकी पत्र को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए अपनी कार्यवाही रोकने से साफ मना कर दिया। इतनी बड़ी बेइज्जती देखकर पूरे अमेरिका के लोग और दुनिया भर के विश्लेषक कह रहे हैं कि यह गलती डोनाल्ड ट्रंप के शासन की आखिरी कील साबित होगी। तत्पश्चात राष्ट्रपति ने तो नहीं लेकिन अमेरिकी कांग्रेस ने कई सारे प्रतिबंध तुर्की पर लगा दिए हैं लेकिन तुर्की ने फिर से अपने सीजफायर को तोड़ते हुए कुर्दिश लड़ाकू पर हमला चालू कर दिया है।
अंत में मैं अपने विश्लेषण से यह समझता हूं कि इसमें सबसे बड़ा फायदा सीरिया की बशर अल असद सरकार को है क्योंकि अगर तुर्की ने कुर्दिश लड़ाकों को हरा दिया तो सीरिया को उसकी एक तिहाई जमीन वापस मिल जाएगी। और अगर कुर्दिश लड़ाके जीत गए तो भी बशर अल असद उनके नेताओं से कोई बड़ा महत्वपूर्ण नेगोशिएशन कर सकते हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी हार इसमें अमेरिका की है क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप के पूरे कार्यकाल में अमेरिका की विदेश नीति बहुत ही बुरे दौर से गुजरी है और दुनिया भर के उसके सहयोगी देशों का भरोसा अमेरिका से कम हो गया है। बाकी इस घटना में आगे और क्या परिस्थितियां निर्मित होती है इस पर हमारी नजर बनी रहेगी।
03 नवम्बर 2019
@Published : Ambikavani Newspaper, 04 November 2014, Monday, Ambikapur Edition, Page 02
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