“भारत अधिक से अधिक क्षेत्रीय एकीकरण, मुक्त व्यापार और नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का पालन करता है. लेकिन वर्तमान समझौते का जो प्रारूप है उसमें भारत के हितों का पूरी तरह से ख्याल नहीं रखा गया है. क्योंकि जब मैं आरसीईपी समझौते को सभी भारतीयों के हितों से जोड़कर देखता हूं, तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिलता. ऐसे में न तो गांधीजी का कोई जंतर जिसमें दूसरे छोर पर खड़ा आखिरी गरीब व्यक्ति भी शामिल है, तथा न ही मेरी अपनी अंतरात्मा हमें आरसीईपी में शामिल होने की अनुमति देती है” ये शब्द 4 नवंबर को बैंकॉक में विश्व के सबसे बड़े क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी मुक्त व्यापार समझौते के सम्मेलन में अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कही। जिसके बाद दुनिया की लगभग आधी आबादी, एक चौथाई जीडीपी, एक चौथाई एफडीआई और लगभग 40 प्रतिशत वैश्विक व्यापार वाले रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक समझौते से अंततः 7 साल बाद भारत बाहर हो गया। आरसीईपी मुक्त-व्यापार कोई साधारण समझौता नहीं था और इससे बाहर रहना सचमुच बहुत बड़ा फैसला है। यह सिर्फ वस्तुओं के आयात-निर्यात से जुड़ा समझौता भर नहीं, इसके दायरे में सेवा, सामान, निवेश तथा बौद्धिक संपदा अधिकार सरीखी कई बातें शामिल हैं. इसका असर भारत की अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों में सालों से सक्रिय कई करोड़ नागरिकों पर होता. लेकिन हम यह जाने कि भारत की चिंता क्या थी और 7 साल तक नेगोशिएशंस के बाद आखिर भारत क्यों इस समझौते से बाहर हो गया। उससे पहले हमें यह जानना होगा कि आरसीईपी है क्या, और इसे कब एवं क्यों बनाया गया था।
इस समझौते की अवधारणा 10 आसियान देशों द्वारा 2011 में की गई थी जिसके बाद 2012 में कंबोडिया में हुए आसियान समिट में इसकी आधिकारिक घोषणा की गई तथा 2013 से 10 आसियान व 6 अन्य देशों ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड के साथ मिलकर 2013 से इस समझौते के लिए नेगोशिएशन शुरू की गई। भारत शुरू से ही इसमें शामिल होने के लिए बातचीत कर रहा था लेकिन अंतिम समय तक भी इसमें हितों की सुरक्षा नहीं होने और हमारे बाजार में विदेशी सामानों के भरमार के डर से भारत ने इसमें शामिल होना कैंसिल कर दिया। यह आरसीपी में शामिल होने के लिए आखरी स्तर की वार्ता थी क्योंकि हर बार सिर्फ भारत के कारण ही इस समझौते की बातचीत साल दर साल बढ़ाया जा रहा था। हालांकि कुछ चिंता ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को भी थी, जिसके कारण अभी मई 19 मई 2019 में चीन ने एक निष्कर्ष नीति का प्रस्ताव दिया जिसके तहत भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को इससे दूर करके बाकी 13 देशों द्वारा इस समझौते को लागू करने का प्रावधान था। चीन ने कहा था कि अगर यह तीनों देश चाहें तो बाद में शामिल हो सकते हैं, लेकिन भारत के बड़े मार्केट को देखते हुए ज़्यादातर देशों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और फिर से नेगोशिएशन चालू हो गई। हाल ही में इसके लिए भारत सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति भी गठित की थी, समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत को इसमें शामिल होना चाहिए नहीं तो हम एक बड़े क्षेत्रीय बाजार से दूर हो जाएंगे।
वैसे अगर बात भारत और इसके मुक्त व्यापार समझौतों की करें तो भारत को हमेशा ही इसमें घाटा हुआ है हमने 1999 में श्रीलंका, 2010 में आसियान एवं साउथ कोरिया, 2011 में जापान एवं मलेशिया के साथ मुक्त व्यापार संधि कर रखा है लेकिन श्रीलंका को छोड़कर आज तक भारत किसी भी देशों के साथ फायदे में नहीं रहा इसलिए आज भी हमारी सबसे बड़ी चिंता व्यापार घाटे की है जो कि इन आरसीईपी देशों के साथ $105 बिलियन यानी लगभग 7.4 लाख करोड़ रुपए है जिसमें सिर्फ अकेला चीन से ही $54 बिलियन का घाटा शामिल है। और जब टेरिफ शून्य या बहुत कम हो जाएगा, फिर तो घाटा हमारी सोच से भी आगे चला जाएगा। इसलिए विपक्ष, किसान एवं सभी व्यापारिक संगठन विरोध कर रहे थे कि जब भारत पहले से ही घाटे में है ऐसे में एक और मुक्त व्यापार संधि करने की क्या जरूरत है। इस समझौते से हमें निश्चित ही बहुत नुकसान झेलना पड़ता क्योंकि वर्तमान में ज्यादा टैरिफ होने के बाद भी चीन के समान भारतीयों से सस्ते हैं तो ऐसे में जब इस समझौते के कारण टैरिफ ज़ीरो हो जाता तब तो दिवाली के दिए और तेल तक भी चीन के सामान से भर जाता और तेल हमारे घरेलू बाजार का निकल जाता। इसका सबसे ज्यादा असर हमारे स्टील, कॉपर, फार्मासिटिकल, टेक्सटाइल, डेरी और एग्रीकल्चर सेक्टर पर पड़ता, क्योंकि वहां के सामान हमारे बाजार से सस्ते हैं और भारत में अभी प्रतिस्पर्धा बहुत कम है। अगर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की बात करें तो तो वहां पर हर किसान के पास 10,000 से ज्यादा गाय हैं यानी वहां डेयरी एक इंडस्ट्री है जबकि हमारे यहां सिर्फ अनिवार्य पोषण। ऐसे में इन दोनों देशों के दूध व दूध पाउडर हमारे देश के हर दुकानों में भर जाते साथ ही देश का कस्टम रेवेन्यू भी कम हो जाता, जैसा कि अभी नोटबंदी और जीएसटी की वजह से घाटे में है।
भारत इसमें चार चीजें कराना चाहता था जिससे हमारे हित प्रभावित ना हो, सबसे पहले तो डुएल टैरिफ स्ट्रक्चर बनवाना चाहता था जिससे सभी सामानों पर ड्यूटी शून्य ना करके वर्तमान स्थिति पर की जाए; दूसरा, भारत एक विशेष व्यवस्था चाहता था ताकि विकास करने के साथ-साथ ही इसके टैरिफ कम किये जाएं; तीसरी, भारत चीनी उत्पादों की डंपिंग के लिए एक फ्रेमवर्क बनवाने की कोशिश कर रहा था जिससे चीनी सामानों का कचरे पर चीन जिम्मेदारी ले और वह उसे किसी अन्य देश में एकत्रित ना होने दें; चौथा, भारत एक ऑटो ट्रिगर मैकेनिज्म बनवाने की कोशिश में था साथ ही यह भी कि समझौते का बेस ईयर 2014 से माना जाए लेकिन जबकि चीन 2013 करने पर अड़ा था। लेकिन भारत के आरसीपी छोड़ने के प्रमुख कारणों में से यह था कि इस समझौते में एंटी डंपिंग ड्यूटी पर कोई चर्चा ही नहीं की गई ना ही इसमें भारतीय सर्विस सेक्टर को लेकर कोई आधारभूत सुरक्षा की बात थी। भारत चीन के नॉन टेरिफ बैरियर्स को लेकर भी चिंतित था साथ ही उत्पादों के उत्पादित देशों को लेकर कोई नियम नहीं बनाया जाना भी एक प्रमुख था जिसके कारण चीन पहले अपने सामान को आसियान देशों में भेज कर फिर भारत में भेजने की कोशिश कर सकता था, इन्हीं चिंताओं को देखते हुए भारत इससे बाहर निकल गया
हालांकि इसमें शामिल होने से भारत के लिए बहुत कुछ फायदेमंद भी होता जैसे कि हमारी एक्ट ईस्ट पॉलिसी को बढ़ावा, सर्विस सेक्टर को मजबूती, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक व आर्थिक रुतबे में वृद्धि, नियम व निवेश नीति बनाने में भागीदारी, नए मार्केट का निर्माण इत्यादि महत्वपूर्ण होते। देखा जाए तो भारत के इसमें शामिल नहीं होने से सभी देशों को अपने बाजारों पर चीन के एकाधिकार हो जाने कि चिंता है क्योंकि भारत उनके लिए एक बहुत बड़ा बाजार था। हालांकि अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर भारत की चिंताओं का ख्याल रखा गया तो भारत फिर से उसमे शामिल हो सकता है, उधर चीन के राष्ट्रपति ने 15 देशों के इसमें शामिल होने पर खुशी का इज़हार करते हुए उन्होंने उम्मीद जताई की भारत भी जल्द ही इस करार में शामिल होगा। साथ ही ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने भी भारत के लिए हमेशा ही आरसीईपी के दरवाजे खुले रहने की बात कही है तो हम यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि अगर भविष्य में भारत के हितों के अनुसार इसमें अगर कोई बदलाव होता है तो निश्चित ही भारत इसमें पुनः शामिल भी हो सकता है।
11 नवम्बर 2020
@Published :
Ambikavani Newspaper, 14th November 2019, Thursday, #Ambikapur Edition, Page 02
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