ऐसा लगातार दूसरी बार और इतिहास में पहली बार हुआ है कि जिस देश ने इस संघ को बनाने में अपना सबसे बड़ा योगदान दिया ताकि सभी विकासशील देशों को दो महाशक्तियां की ध्रुवीकरण से बचाया जा सके, अब वही देश इस संघ से दूर होने की कोशिश कर रहा है। लेकिन ऐसा आखिर क्यों हो रहा, कि जिस संघ कि सार्थकता सात दशकों से ज्यादा और इसके यथार्थ के पूर्ण हो जाने के तीन दशकों बाद भी बनी हुई है, उससे भारत बाहर हो जाए? क्या यह कभी वास्तविकता हो सकती है? यह सब जानेंगे, लेकिन उससे पहले इसके नींव को समझना होगा कि विश्व के सबसे पुराने में से एक संगठन, गुटनिरपेक्ष आंदोलन संघ कैसे बना, क्यों बनाया गया और वर्तमान में इसकी कौन कौन सी चुनौतियां हैं, साथ ही यह भी कि क्या भारत को कभी संघ से बाहर निकाला जा सकता है?
साल था 1945 का, जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बहुत सारे नए देशों का जन्म हुआ क्योंकि जिन विकसित देशों ने अपने-अपने उपनिवेश बना रखे थे वे इस महायुद्ध के बाद कमजोर हो गए। भारत भी स्वतंत्रता पाने वाले उन देशों में से एक था। लेकिन इस महायुद्ध के बाद एक नई तरह की एकाधिकार व अप्रत्यक्ष रूप में आर्थिक रूप से उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया दुनिया में प्रारंभ हुई, और इसका नेतृत्व किया संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ ने। चूंकि यह दोनों देश मित्र राष्ट्रों के समूह में से थे और दुनिया के सबसे ताकतवर देश भी, तो इन्होंने अपने आप को विभिन्न क्षेत्रों में सबसे काबिल साबित करने की होड़ में लगा दिया। चाहे वह अंतरिक्ष हो या परमाणु, मिलिट्री हो या तकनीक, जासूसी हो या एक दूसरे को मिटा देना। यहां से इन दोनों के बीच शीत युद्ध प्रारम्भ हो गया यानी मैदान में आकर लड़े बिना अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे को हराना। इसके लिए उन्हें तलाश थी उन देशों की, जो इनकी सत्ता को स्वीकार करें और इनके साथ जुड़कर स्वयं का विकास करें। आखिरकार दुनिया के कई देशों ने अमेरिका और रूस की ताकत को अपनाकर अपना विकास करने का सोच लिया, जिसमें दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि अमेरिका के पक्ष में हो गए। दूसरी तरफ उत्तर कोरिया, क्यूबा जैसे कम्युनिस्ट देशों ने सोवियत संघ के साथ जाना बेहतर समझा।
अब यहीं से पूरे घटनाक्रम की शुरुआत होती है, क्योंकि जब भारत की बारी आयी कि वह इन दोनों में से किसी एक को चुनें, तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दोनों के एकाधिकार को अपनाने से मना कर दिया। इस साहस को देखकर विश्व के ज़्यादातर देशों ने भी इस पद्धति को नकारते हुए इसे वैश्विक विकास का अवरोधक बताया। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी था, कि अंदर ही अंदर सभी देश अमेरिका और सोवियत संघ के दबाव में थे। भारत, इंडोनेशिया, युगोस्लाविया को इस बात का डर था कि इससे जो जियोपॉलिटिकल गेम शुरू होगा वो विकासशील देशों को अपाहिज बना देगा, क्योंकि सबको अपने देश का विकास करना था। इसके बाद एक बेहद महत्वपूर्ण समय आया, जब दो महाद्वीपों यानी अफ्रीका और एशिया के 29 देश 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग शहर में हुए एशिया – अफ्रीका सम्मेलन में मिले। इसी सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक ऐसे संगठन की अवधारणा रखी, जो किसी एक देश का गुट ना बनाकर गुटनिरपेक्ष बना रहे। तत्पश्चात 19 जुलाई 1956 को युगोस्लाविया के ब्रिजुनी द्वीप में ब्रिजुनी घोषणापत्र में हस्ताक्षर करके गुटनिरपेक्ष संगठन बनाया गया जिसके रचनाकार भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। तब इस डिक्लरेशन पर हस्ताक्षर करने वाले देश और नेता थे युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज़ टिटो, भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नस्सार। जिसके बाद आंदोलन के रूप में तीसरी दुनिया यानी अविकसित और विकासशील देशों को इस संघ में जोड़ने का कार्य किया गया, और अंततः 1961 में युगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में पहला सम्मेलन आयोजित करके नॉन-अलाइंड मूवमेंट की आधिकारिक स्थापना की गई। इस आंदोलन का जनक युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज़ टिटो, भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नस्सार, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति अहमद सुक्रणों और घाना के राष्ट्रपति क्वामे एंक्रूमा को माना गया। इस गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने भारत और चीन के बीच 1954 में हुए पंचशील समझौते को ही अपने संघ का सिद्धांत बनाया। जिसके उद्देश्य था पहला; सभी देश एक दूसरे की संप्रभुता व अखंडता का सम्मान करेंगे दूसरा; एक दूसरे के बीच आक्रामक रुख नहीं अपनाएंगे तीसरा; एक दूसरे की घरेलू मामलों में कोई दखलंदाजी नहीं करेंगे चौथा; समानता रखेंगे और एक दूसरे को फायदा पहुंचाएंगे और पांचवा; अपने सभी द्विपक्षीय मुद्दों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाएंगे, सम्मिलित है। अब इसकी सफलता का ध्येय देखिए कि आज संयुक्त राष्ट्र के बाद नाम संघ में सबसे ज़्यादा 120 देश शामिल हैं। जबकि चीन, ब्राज़ील, मैक्सिको जैसे 17 देश इसके ऑब्जर्वर हैं।
वर्तमान में भारत को लेकर निराशा इसलिए उत्पन्न हो रही है क्योंकि यह लगातार दूसरी बार है जब भारत के प्रधानमंत्री ने इस गुट निरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलन में भाग लेने नहीं गए, और दोनों ही बार भारत का प्रतिनिधित्व देश के उपराष्ट्रपति ने किया। 2019 में नाम का 18वां सम्मेलन अजरबैजान की राजधानी बाकू में पिछले महीने आयोजित किया गया था जहां पर असमंजस की स्थिति तब निर्मित हो गई जब पाकिस्तान ने इस मंच का इस्तेमाल करके कश्मीर से धारा 370 हटाने और कश्मीरियों के मानवाधिकार को लेकर विरोध किया, तो भारत ने संघ के सिद्धांतों की याद दिलाते हुए पाकिस्तान को आतंकवादियों का देश कह डाला। 2016 में 17वां नाम सम्मेलन वेनेजुएला के पार्लामोर में आयोजित किया गया था जबकि इसका 7वां सम्मेलन 1983 में भारत के नई दिल्ली में आयोजित किया गया था। भारत के लिए यह नाम संघ बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि जब से यह बना है तब से हर बार देश के प्रधानमंत्री इस सम्मेलन में हिस्सा लेते आए हैं। हालांकि 1979 में एक ऐसा भी दौर आया था जब देश के प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह घरेलू राजनीति के कारण क्यूबा के हवाना में होने वाले नाम समिट में नहीं जा पाए। उस समय इस में हिस्सा नहीं लेने का कारण राजनीतिक था, लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में नरेंद्र मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत में है। फिर भी प्रधानमंत्री का इसमें हिस्सा नहीं लेने का कारण निकल कर आता है कि यह संघ अब भारत के लिए कम महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि आज भारत की नीति भी गुटनिरपेक्ष नहीं रही है। जिन दो देशों के कारण यह संघ बना, आज के समय में भारत उन दोनों ही देशों के बहुत नजदीक चला गया है, विशेषकर अमेरिका के करीब। हमने अमेरिका से कॉमकासा, लेमोआ, जीएसओएमआईए समझौता कर लिया है, निकट भविष्य में बेका समझौता करने वाले हैं। साथ ही नाटो संगठन के बड़े सहयोगी बनकर आज हम अमेरिका से अपने रणनीतिक, रक्षा, इकोनोमिक सहयोग बढ़ा रहे हैं ऐसे में भारत आज इस मंच पर खुलकर कहीं भी नहीं कह सकता कि हम आज भी गुटनिरपेक्ष हैं। इसके अलावा भारत की एक चिंता चीन भी है जिसने अपने बेल्ट रोड परियोजना के अंतर्गत अफ्रीका महाद्वीप के बहुत से देशों को कर्ज देकर उन्हें अपने जाल में फंसा रहा है। जबकि दक्षिणी सूडान को छोड़ दें तो पूरे 55 अफ्रीकी देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन संघ के सदस्य हैं। ऐसे में अगर कभी किसी मुद्दे पर भारत को इन देशों के सहयोग की जरूरत पड़ी तो हो सकता है कि चीन के दबाव में ये भारत का पक्ष ना ले सकें। इसलिए भी इस संघ कि उपयोगिता भारत के लिए कम हो गई है।
हालांकि भारत सरकार को यह जानना होगा कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन सिर्फ एक गठबंधन नहीं है बल्कि यह हमारे भारत के विदेश नीति की विरासत है, और प्रतीक है हमारी सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी का। मैं समझता हूं कि यही वो मंच है जो भारत को विश्व गुरु बना सकता है, क्योंकि यह जानकर खुशी होती है कि जिन सिद्धांतों के दम पर चार दशकों तक इस संगठन ने अपने आप को सुरक्षित रखा और 1991 में सोवियत संघ के टूटने के साथ जब कोल्ड वॉर खत्म हुआ उसके 30 सालों बाद भी यानी सातवें दशक में आकर भी यह संघ अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। इसलिए भारत इसे कभी नहीं छोड़ेगा। इसके अलावा यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि दशकों पहले भारत ने रणनीतिक स्वायत्तता का जो सपना देखा था, यानी हम हमारे निर्णय स्वयं ही लेंगे भले ही हमारे संबंध किसी भी देश से कितनी गहरी क्यों ना हो; यह सोच भी भारत को पीछे हटने नहीं देगी। इस वजह से अभी के लिए यह सब थोड़ा महत्वपूर्ण ना लग रहा हो, लेकिन नाम की यही विरासत भविष्य के लिए हमारी परिचायक बनेगी।
22 दिसंबर 2019