चीनी राष्ट्रपति के रूप में 23 साल में पहली बार शी जिनपिंग जब हाल ही में नेपाल के दौरे पर गए वो भी भारत का दौरा करने के बाद, तो यकीनन भारत बहुत ही सावधानी और चुपचाप तरीके से इस दौरे पर नज़र बनाए हुए था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और फिलहाल स्वयं तथा दक्षिण एशिया पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन कर रहा था। इसके अलावा भारत आने से ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को बुलाना और उसे कश्मीर मुद्दे पर सांत्वना देना, ये सब बिल्कुल उसी कूटनीति की तरह है, जो कभी 3 साल पहले तक अमेरिका हमारे साथ किया करता था। खेल तो हमारे साथ अब भी खेला जा रहा है, बस अब खेलने वाला देश बदल गया है। लेकिन उस खेल में नेपाल शामिल है और वो भी हमारे खिलाफ!, ये सोचना थोड़ा सा मुश्किल है लेकिन ऐसा कैसे हो गया कि तीन तरफ से हमसे घिरा हुआ हमारा पड़ोसी हमारी कूटनीति में परस्पर अपना विरोध जता रहा है? इसके सिर्फ एक ही कारण है, नेपाल की कम्यूनिस्ट सरकार।

इसकी शुरुआत हुई 2015 से, जब नये नेपाली संविधान में मधेसियों को लेकर असमानता पैदा हो गई जिसे भारत ने गलत करार दिया था। दोनों देशों की इसी चिंता से नेपाल में खाद्य पदार्थों, पेट्रोलियम जैसी रोजमर्रा की चीज़ों में कमी आ गई या शायद खुद ही कमी कर दी गई, जिसके बाद पूरे नेपाल में भारत विरोधी माहौल बनाकर प्रदर्शन किया गया, और इस अघोषित आपातकाल का ज़िम्मेदार भारत को ठहराया गया। ऐसे समय में एंट्री हुई चीन जैसे कुबेर की, जिसने नेपाल के सपनों को सोने के पर लगाने का वादा किया। सबसे पहले तो ट्रकों में लादकर फ्री खाद्य सामग्री भेजवाई और बाद में गैस एवं पेट्रोल। साथ ही पूरे नेपाल में अपने बेल्ट एंड रोड परियोजना से विकास की गंगा बहा देने का भी वादा किया। कुछ दिनों बाद ही चीन ने अपने दो बंदरगाहों तक भी नेपाल को पहुंच प्रदान कर दिया ताकि आयात और निर्यात को लेकर भारत पर उसकी निर्भरता कम हो सके। यह भारत को घेरने लिए चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति का वह हथियार था जिससे चीन नेपाल को रणनीतिक और आर्थिक दोनों तरह से इस्तेमाल कर सके, क्योंकि चीन के पास पैसा था और नेपाल के पास गरीबी। इस तरह नेपाल चीन के पाले में चला गया।

अभी पिछले हफ्ते ही खबर आयी है जो कि कई महीनों से चर्चा में थी जिसे अब वहां के सर्वे विभाग ने आधिकारिक रूप में माना है कि चीन ने नेपाल के कई जिलों की 36 हेक्टेयर जमीन को अपने कब्जे में कर लिया है जिसमें हुमला, करनाली, रासुवा, सिंधुपालचौक जैसे जिले शामिल हैं। वैसे ये कब्जा तब हुआ जब बर्फ पड़ने पर नेपाली आर्मी बॉर्डर से पीछे आ जाती है, उसी दौरान चाइनीज आर्मी यहां पहुंचकर कुछ घर या मैदान या स्टेडियम बना लेती है और बाद में कहती है कि ये तो हमारा हिस्सा ही था। अब आश्चर्यजनक बात यह थी कि मंत्रालय द्वारा इसे कब्ज़ा मान लेने के बाद भी वहां की सरकार ने ये मामला दबा दिया क्योंकि वहां भी चीन की तरह कम्युनिस्ट सरकार है। और हाल ही में जब प्रधानमंत्री केपी ओली जब चीन यात्रा पर गए थे तो बाकायदा वहां की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ये सीखा रही की सरकार चलाते कैसे हैं। इसीलिए नेपाल की आम जनता सरकार को चुप देखकर खुद ही देशभर में विरोध करके गो बैक चाइना कहकर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का पुतला जला रहे हैं लेकिन फिर भी वहां की सरकार न सिर्फ चुप है बल्कि आधिकारिक तौर पर मामले को भारत की तरफ मोड़ते हुए नए भारतीय नक्शे को ही विवादित करार कर दिया। जिसमें उत्तराखंड के कालापनी क्षेत्र को नेपाल ने खुद का हिस्सा बताया है। हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी नेपाल को सख्त जवाब देते हुए चेतावनी दी है कि वह किसी और के बहकावे में आकर इस तरह की बयानबाज़ी ना करे, वो भी ऐसे समय में, जब इस विवादित क्षेत्र के हल के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित है। हालांकि ये बात भी सही है कि 1962 में चीन से युद्ध के दौरान हमने ये क्षेत्र नेपाल से लिया था लेकिन ऊंचाई के कारण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये क्षेत्र सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। और ये नक्शा अभी नहीं बदला गया है बल्कि यह क्षेत्र तो 1962 से ही भारत के कब्जे में है इसलिए नेपाल जानबूझकर इसे मामला बनाने में लगा है।

अब हमें ये जानना होगा कि ये सब हो क्यों रहा है, कारण है सामान विचारधारा वाले देश के पैसे से अपने देश का विकास करना। क्योंकि जब शी जिनपिंग नेपाल दौरे पर आए तब उन्होंने नेपाल को दो सालों में 3500 करोड़ रुपए सहायता के रूप में देने का वादा किया, जबकि भारत नेपाल को हर साल सिर्फ 233 करोड़ रुपए ही मदद देता है। इसके साथ ही शी जिनपिंग ने 2015 में भूकंप से तबाह हुए आर्निको हाईवे का भी पुनर्निर्माण करने का वादा किया। यह हाईवे काठमांडू को कोदारी से जोड़ता है जो कि चीनी बॉर्डर के करीब है। इसके साथ ही नेपाल एक ट्रांस हिमालयन हाई स्पीड रेल लिंक बनवाना चाहता है, वो भी चीन के पैसे से ताकि काठमांडू को तिब्बत के लहासा से जोड़ा जा सके। इन दोनों परियोजनाओं के पूरा हो जाने से नेपाल की अर्थव्यवस्था में लगभग 20000 करोड़ रुपए की तरक्की हो जाएगी। अब आप सोचकर देखिए, इतने पैसों से भारत 12 राफेल या 3 एस-400 एंटी मिसाइल हथियार खरीद सकता है, तो अगर जब इतने पैसों से किसी देश का विकास हो रहा हो, तो वह अपने दोस्त के विरोधी का विरोध क्यों ना करे। आखिरकार सभी देशों के अपने हित सर्वोपरि होते हैं। इस मामले में नेपाल ने हमारे अन्य पड़ोसियों से अधिक चतुराई दिखाई हालांकि नेपाल को अभी पता नहीं है कि चीन क्या चीज है, जब वो अमेरिका और भारत को कुछ नहीं समझता तो फिर नेपाल को तो पता ही नहीं की चीन उसे कब समेट दे। श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह को 99 सालों तक के लिए लीज़ में ले लेना नेपाल एवं विश्व के लिए एक उदाहरण ही है और तो और ज़मीन कब्जाने से लेकर चीन ने उसकी शुरुआत भी कर दी है। बहरहाल, आगे देखते हैं कि नेपाल की चतुराई उसे कितने अकड़ में ले जाती है।

18 नवम्बर 2019

@Published :

 

1. AmritSandesh Newspaper, 27 November 2019, Wednesday, #Raipur Edition, Page 04 (Editorial) 
2. Ambikavani Newspaper, 21st November 2019, Thursday, #Ambikapur Edition, Page 02 _ _ _ _ _ (Facebook Link)

 

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